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भारतीय महिलाओं पर चित्रित्त मनोव्यथा कोविड -19 के समय।

लॉकडाउन पर महिलाओं की मनोव्यथा पर आधारित एक स्टोरी , जो बताती है की महिलाये कितना व्याकुल है अपनी सखियों से मिलने के लिए पर सरकार की सख्ती और मास्क , सोशल डिस्टैन्सिंग ,सेनिटिज़ेशन आदि क्या करें। समय निकालकर जरूर पढ़े अच्छी लगे तो कमेन्ट जरूर करें। 

दोस्तों से दूरी ने जीवन से रंग मानो गायब ही कर दिए थे। ऐसे में एक मुलाक़ात का निमंत्रण जैसे सारी आशंकाओं को परे धकेलने की कोशिश करता मन हर्षा गया। ज़िम्मेदारी के अहसास ने नई तरक़ीब सुझाई।

सखियों की बगिया

लॉकडाउन, कोविड -19, क्वारंटाइन- ये भरी-भरकम शब्द न कभी सुने, न जाने थे। लेकिन कितने महीनों से ये हमारे आसपास, मन मस्तिष्क में समाए हुए है। सभी टीवी चैनलों पर कोरोना अपडेट, फिल्मी सितारे की अलविदा की खबरे, बस यी चली रही थीं।

ऐसे मायूस समय में एक सखी का फोन, फिर दोस्तों की महफिल सजाने का व्हाट्सएप मैसेज देख दिल बाग-बाग हो गया। लगा जैसे इतने महीनों से इसी मैसेज का इंतजार था इंतजार क्यों नहीं होगा! जब-जब अपनी अलमारियां खोलते थे, लगता था जैसे हमारी खड़ियां, जूलरी, पर्स, फुटवियर सभी तुमको चिढ़ा रहे हो, जला रहे हो। तैयार होना ही जैसे भूल ही गए थे। दो-चार जोड़ी कपड़ों में ही कितने महीने निकाल दिए थे।

कितने महीनों से झाडू-पोंछा, बर्तन-कपड़े, टीवी इंटरनेट ही हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गए थे। पिंजरे में बंद पक्षियों की सी हालत हो गई थी। किसी ने सच ही कहा है. रूपए हम बैंकों में रख सकते हैं, सोना-चांदी लॉकर्स में रख सकते हैं, लेकिन दिल की बात रखनी हो, कहनी हो तो दोस्तों की महफिल ही चाहिए। शायद यही सखी की सोच भी होगी।

एक बार फिर से बॉट्सएप मैसेज को पढ़ने लगी-'कल 6:00 बजे सभी सखियों को पिंक ड्रेस में पार्क में मिलना है। वहां सोशल डिस्टेसिंग के साथ हाउजी भी खेली जाएगी।'

वाह!! मन गदगद हो गया। सखियों को मिलना और हाउजी भी खेलना, सोने पे सुहागा, क्या सच में हम फ्रेंड्स फिर से मिलेंगे? नहीं-नहीं, कोई सपना तो नहीं। खुद को मिच करके देखा।

अरे नहीं... सच में हमें पार्क में मिलना है।बहुत से विचार उमड़-भुगड़कर आने लगे। स्वयं से ही प्रश्न किया, क्या मिलना उचित है और फिर स्वयं को समझाते हुए ही सोचने लगी ऐसे तो बिना वजह हम कितने महीने से बाहर नहीं निकले हैं, पर महीने में एक बार सोशल डिस्टेंसिंग के साथ कॉलोनी के पार्क में मिलना कुछ गलत भी नहीं। क्यों में इतना सुनहरा अवसर छोडू।

क्या उचित, क्या अनुचित इस सोच को तक में रख फ्रेड्स से मिलने जाने का निश्चय कर ही लिया। यह तय कर मन मयूर नाच उठे। या पहनूँगी ? साड़ी स्यूट या जीस-टॉप ? फूटबियर पर्स पिंक है कि नहीं। यही सोचते हुए झटपट अपनी अलमारी को खोला अरे वाह ! ख़ुशी की लहर दौड़ उठीं। सब कुछ पिंक ड्रेस कोड के अनुसार मिल गया।

रात कल के इंतजार में कटी और लो, यह कल आ गया। सुबह से बच्चे और पतिदेव को बड़े हषोल्लास के साथ कहने लगी, आज तो मुझे छह बजे पार्क में सखियों की महफिल में जाना है।' पतिदेव ने हंसते हुए कमेंट किया, 'खुश तो ऐसे हो रही हो जैसे किसी चाहने वाले ने पार्क में मिलने बुलाया है। और यह भी ड्रेस कोड के साथ जिससे वह आसानी से पहचान है। पति और बच्चे हसने लगे।' उफ। कितने दिनों से कोई अच्छे कपड़े नहीं, श्रृंगार नहीं, ब्यूटी पार्लर , शॉपिंग कुछ भी तो नहीं । यही तो हम औरतों की ख्वाहिश रहती हैं, पर ये पति क्या समझें। इन्ही विचारों के साथ फटाफट लंच किया, काम समेटा। सोचा थोड़ी देर आराम ही कर लूं, पर दिल के किसी कोने में अज्ञात भय ने सोने नहीं दिया जाऊँ या ना जाऊँ की कशमकश के साथ करवट ही बदलती रही। कहीं हम सरकार के आदेश की अवहेलना तो नहीं कर रहे?

खैर इंतजार की घड़ियां खत्म हुई । दिल तो खूब उछल रहा था। अपनी सुविधा को तिलांजलि दे, अपने पिंक ड्रेस कोड के साथ महीनों बाद सज उठी। तैयार होने में कुछ सम्झ में नहीं आ रहा था लिपस्टिक लगाये या नहीं ! मास्क तो पहनना है, कोई बात नहीं, में तो लगा ही लेती हु, कहीं गलती से मास्क हट गया तो?

इतने में डोरबेल बजी। 'ओहो! आप आ गई! हेलो ,हाय भी नहीं। सीधे उनकी साड़ी पर नजर गई। मुंह से निकल ही गया, 'अरे वाह पिंक साड़ी बहुत सुंदर है, मास्क भी मैचिंग है। मैं भी तैयार हूँ। बस मास्क लगाना है। सेनिटाइज़र , पैन, हाउजी पर पिंक पर्स में झटपट डाले और समय से पांच मिनट पहले ही कॉलोनी के विशाल पार्क में, जहां अभी इतनी चहल-पहल नहीं हुआ करती, पहुंच गए। देखते ही देखते सभी सखियां मास्क और सेनिटाइज़र हाथ में लिए चिड़ियों की  चहक से भी ज्यादा चहकती हुई आ गई। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। प्रकृति के आनंद के साथ सजी-भजी फ्रेंड्स का मिलाप लग रहा था कि इस पार्क की तितलियां भी शायद हमें देखकर शरमा रही होगी। भले ही किसी की हसी, मुस्कुराहट मास्क के पीछे नहीं दिख रही थी, पर सभी की आंखें दिल की बात बयां कर रही थीं।

अब तो होंटो की जगह आंखों ने ले ली है। अब तो आंखें ही बोलेंगी और मुस्कराएंगी। सभी सखियां एक-दूसरे को निहार रही थी। मास्क की स्ट्रिप्स के पीछे भी कान के झुमके लहरा रहे थे। 'अरे दूर-दूर रहो'- बार-बार दिल से आवाज आ रही थी और उसी आवाज को सुनते हुए हम सखियां एक से दो मीटर की दूरी का ध्यान रखते हुए हंसी ठिठोली के साथ, पार्क में घूमने चंद लोगों और खेलते बच्चों के कौतूहल का केंद्र बिंदु बनी रहीं।

बातचीत के सिलसिले के साथ पहले की तरह ही हाउजी के दो राउंड्स के लिए रुपए इकट्ठे किये। उस पर सैनिटाइजर लगाया। कोई अखबार, कोई चटाई, कोई कुर्सी - जो जैसी चीज साथ लेकर आई थी, उसी पर दूर-दूर बैठकर हाउजी का मज़ा लिया गया। कई सखियां जो लेट हुई फोन से भी उन्हें सूचित किया और कइयों को कोरोना के डर ने इस खुशी से महरूम रखा। पर हम सात-आठ फ्रेंड्स तो इकट्ठे हुए लेकिन खुशी और डर के साथ अपनी सुरक्षा को नजरअंदाज ना किया। आज तो जितनी फ्रेंड्स आई, वही बहुत लगी।  हरियाली के साथ फोटो सेशन किया।हाउजी और सखियों की बातचीत से ही हमारा मन कुछ हल्का हुआ। आज तो खाने-पीने की आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई। अपनी पानी की बोतल ही काफी थी। धीरे-धीरे सूर्य अस्त होने लगा, लेकिन किसी भी सखी को बिछड़ने की इच्छा ही नहीं हुई। इस सबके साथ एक अज्ञात भय भी छाया था, माहोल में निश्चितता नहीं थी।

ढेरों फोटोज लिए, हालांकि मास्क ने हमारे आधे चेहरों को ढाका  हुआ था, लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग के साथ फोटो सेशन का लुत्फ लिया। साथ ही घर-परिवार की हिदायतें, प्रशासन की हिदायतें, यहां तक कि वह कचरे की गाड़ी का अनाउंसमेंट भी कानों में गूंजने लगा- 'सोशल डिस्टसिंग, सोशल डिस्टेंसिंग।' सभी सखियों की जुबान पर बात आ ही गई कि इतना डरते-डरते एक-दूसरे से मिल भी लें तो क्या ! क्यों न हम परिस्थितियां सामान्य होने तक वर्चुअल किटी करें।

वाट्सएप पर गेम और हाऊजी का मजा लें, ऑनलाइन में भी ड्रेस कोड रख सकते हैं। सज -संवर कर बैठ सकते हैं, अपने दिल की बात भी कर सकते है, वह भी बिना किसी डर के।

इस सोच के साथ वर्चुअल किटी में मिलने का वादा कर पूरे उत्साह, उमंग और जोश के साथ, ऊर्जा से रोमांचित हम अपने अपने घर को लौटे, तो मन में ऐसा भाव था जैसे फ्रेडस में मिलकर कोई गढ़ जीत लिया हो।


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