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एलपीजी सब्सिडी आपके बैंक खाते में जमा की गयी है या नहीं और आधार कार्ड में अपना मोबाइल नंबर रजिस्टर या अपडेट करें।

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एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी आपके बैंक खाते में जमा नहीं की गई है? यहां आप mylpg.in पर चेक कर सकते हैं : 

एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी: नरेंद्र मोदी सरकार ने एलपीजी सिलेंडर पर 14.2 किलोग्राम वजन के एलपीजी सिलेंडर की सब्सिडी राशि को 153.86 रुपये से बढ़ाकर 291.48 रुपये कर दिया है।

एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी: लिक्विड पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) सिलेंडर ग्राहकों को अच्छी तरह से पता होना चाहिए कि एलपीजी सिलेंडर की कीमत भारत में महीने दर महीने तय की जाती है। हाल ही में, नरेंद्र मोदी सरकार ने एलपीजी सिलेंडर पर एलपीजी सिलेंडर का पैसा 153.86 रुपये से बढ़ाकर 291.48 रुपये कर दिया है, जिसका वजन 14.2 किलोग्राम है। दरअसल, पेट्रोलियम मंत्रालय ने तालाबंदी के दौरान प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना गैस सिलेंडर की सब्सिडी 174.86 रुपये से बढ़ाकर 312.48 रुपये कर दी है।

चूंकि, सरकार ने लाभार्थियों को DBT (डायरेक्ट बैंक ट्रांसफर) भी शुरू किया है। इस बोली में, उन्होंने इंडेन गैस और अन्य एलपीजी गैस उपभोक्ताओं के लिए एलपीजी सिलेंडर की वास्तविक राशि का भुगतान करने का प्रावधान किया है और फिर सरकार एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी को एलपीजी उपभोक्ता के बैंक खाते में हस्तांतरित करेगी।

हालांकि, कई लोग यह नहीं जांचते हैं कि एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी का पैसा उनके बैंक खाते में स्थानांतरित किया गया है या नहीं। यह सही नहीं है। उन्हें इसकी जांच करनी चाहिए और इसमें ज्यादा समय भी नहीं लगता है। कुछ ही मिनटों में ग्राहक जान सकते हैं कि एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी का पैसा उनके बैंक खाते में ट्रांसफर किया गया है या नहीं।

इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड या आईओसीएल वेबसाइट के अनुसार, इंडेन गैस उपभोक्ता को यह जानने के लिए बैंक का दौरा करने की आवश्यकता नहीं है कि एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी के पैसे को खाते में जमा किया गया है या नहीं। इंडेन का कहना है कि ग्राहक मोबाइल फोन का उपयोग करके एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी मनी ट्रांसफर की जांच कर सकते हैं। उन्होंने इंडेन और अन्य एलपीजी सिलेंडर उपभोक्ताओं के लिए कुछ कदम उठाने का सुझाव दिया है, जो इस प्रकार है:

1] mylpg.in पर लॉग इन करें ;

2] होम पेज पर, आपको तीन एलपीजी सिलेंडर प्रदाताओं का नाम और चित्र मिलेगा ;

3] अपने एलपीजी सिलेंडर विक्रेता पर क्लिक करें ;

4] एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी ट्रांसफर पर एक इंटरफेस खुल जाएगा ;

5] इसके 'बार मेनू' पर जाएं और 'अपनी प्रतिक्रिया ऑनलाइन दें' (Give your feedback online) पर क्लिक करें ;

6] अपना पंजीकृत मोबाइल नंबर, एलपीजी उपभोक्ता आईडी, राज्य और वितरक का विवरण भरें ;

7] फिर 'फीडबैक टाइप पर क्लिक करें ;

8] 'शिकायत' (Complain) विकल्प चुनें और 'अगला' (Next) पर क्लिक करें; तथा

9] एक नया इंटरफ़ेस खुल जाएगा जिसमें आपके पूरे बैंक विवरण होंगे जहां आप अपने एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी ट्रांसफर की जांच कर सकते हैं।

इसलिए, उपर्युक्त चरणों का पालन करते हुए, कोई भी कुछ मिनटों को समर्पित करके एक के बैंक खाते में एलपीजी सिलेंडर सब्सिडी मनी ट्रांसफर की जांच कर सकता है।

 

फेलियर को सक्सेस में बदलना है तो इनसे सीखें।

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बात किसी एग्जाम की हो,किसी प्रोजेक्ट की या बिजनेस वेंचर की, फेल होने पर निराश और हताश होना आम है। लेकिन अगर आप हिम्मत हारे बिना वो करेंगे जो आपको पसंद है और उसमें बेहतरीन प्रदर्शन कर दिखाएंगे तो सफलता के नए रास्ते खुलेंगे। दुनिया में ऐसे कई सक्सेसफुल लोग हैं जिन्होंने सफल होने से पहले कई बार फेलियर का सामना किया। अपने अनुभव से वे इस बात में बहुत यकीन रखते हैं कि फेलियर आपको सफलता के लिए तैयार करता है इसलिए इससे डरें नहीं बल्कि सामना करें। फेलियर को गले लगाइए क्योंकि किसी चीज में फेल हुए बिना जीवन बिताना संभव ही नहीं है। कुछ ऐसी ही सोच के साथ इन सफल पर्सनैलिटीज ने भी अपने स्कूल स्कोर को तवज्जो न देकर अपने पैशन को पोषित किया और पूरी दुनिया में अपनी पहचान भी बनाई।

वयस्क होने के बाद भी पढ़ नहीं पाते थे टॉम

हॉलीवुड लीजेंड टॉज क्रूज की माने तो वयस्क होने तक वे पढ़ नहीं पाते थे। इसकी वजह डिस्लेकिस्या थी। वे यह भी  बताते है कि उन्होंने 18 स्कूल बदले। एक समय ऐसा भी था जब उन्होंने प्रीस्ट बनने के बारे में सोचा लेकिन एक टीचर के प्रोत्साहन पर  हाई स्कूल के प्रॉडक्शन में ऑडिशन दिया और लीड रोल अपने नाम कर लिया। यही से उन्होने एक्टिंग में अपने पैशन को पहचाना और इसे कॅरिअर के तौर पर अपनाया। मिशन इम्पेसिबल और टॉप गैन जैसी फिल्मों में काम कर चुके टॉम की नेट वर्थ इनकम आज 455  मिलियन स्टलिंग पाउंड्स  है।

 

स्कूल में बेवकूफ समझे जाते थे रिचर्ड ब्रैनसन

रिचर्ड ब्रैनसन बताते हैं कि उन्हें स्कूल में बेवकूफ स्टूडेंट के तौर पर देखा जाता था। डिलेक्सिया से ग्रस्त रिचर्ड को स्कूल में लर्निंग में दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा। आखिरकार 16 की उम्र आते-आते उन्होंने स्कूल छोड़ दिया और एक स्टूडेंट मैग्जीन की शुरुआत की। मैग्जीन को सपोर्ट करने के लिए उन्होंने मेल के जरिए रिकॉर्ड बेचने भी शुरू किए। मैग्जीन तो सफल न हो सकी लेकिन रिकॉर्ड का बिजनेस सफल हुआ और पूरी दुनिया में पहचाने जाने वाले कंपनी वर्जिन रिकार्ड्स में तब्दील हो गया। आज 400 कंपनिया इसमें शामिल है।

 

होमवर्क नहीं, सिंगिंग पसंद थी रिहाना को

रिहाना को स्कूल जाना पसंद नहीं था।उनका मानना है कि जब गा सकते है, खेल सकते है या होमवर्क को छोड़कर कुछ कुछ भी दूसरा काम कर सकते हैं तो स्कूल जाना आपको कष्टदायक लग सकता है। रीरी के नाम से मशहूर इस सिंगर ने अपनी अपनी रिकॉर्डिंग डील 16 की उम्र में साइन की और म्यूजिक इंडस्ट्री में  जगह बनाने में फोकस करने के लिए स्कूल ड्रॉप कर दिया। अब तक रिहाना अम्ब्रेला , डायमंड और रुड बॉय जैसे कई हिट स्टूडियो एल्बम्स रिलीज कर चुकी है। हाल की एक ब्यूटी ब्रांड लॉन्च कर सफल बिज़नेस वुमन भी बनी। 


5000 बार फेल हुए लेकिन हारे नहीं डायसन

किसी एग्जाम या किसी अन्य काम में एक  बार फेल होना काफी निराशाजनक होता है। अब इसे आप 5126 से गुणा करें ओर सोचें। यह उन फेलियर्स का नंबर है जिनका सामना इनवेंटर व आंत्रप्रेन्योर सर जेम्स डायसन ने अपने 15 साल के कॅरिअर  में किया। डायसन मानते हैं कि ऐसे कई मौके आते हैं जब एक इनवेंटर निराश होकर हार मान सकता है लेकिन मुझे मेरे हर फेलियर ने सक्सेस के पास पहुंचाया। आज उनका तैयार किया बैगलेस वैक्यूम क्लीनर अमेरिका में बेस्ट-सेलर है और आज  उनकी नेटवर्क 4.5 बिलियन डॉलर के पार है।

 

रैपर (रैप सिंगर) बनने का सपना था तो पढ़ाई छोड़ी एमिनेम ने

एमिनेम अपने फेलियर को लेकर कई बार खुलकर बात कर चुके हैं। वे बताते है कि नौवीं क्लास में तीन बार फेल हुए और अंततः रैप सिंगर बनने के अपने सपने को पूरा करने की चाह में  वे स्कूल की पढ़ाई पर फोकस नहीं कर पाए इसके चलते उन्होंने 17 की उम्र  में स्कूल ड्रॉप कर दिया।  स्कूल छोड़ने के बाद एमिनेम ने इंडस्ट्री में पहचान बनने के बनाने लिए कड़ी मेहनत की। इसी मेहनत के चलते आज उनकी नेटवर्थ की बात करें तो यह 167 मिलियन स्टलिंग पाउंड के करीब है। 


भारत और नेपाल के बिगड़े रिश्ते डोर।

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कैसे दूर होता गया नेपाल ? भारत को आज नहीं तो कल सीमा मुद्दे का रास्ता निकालना ही होगा।

नेपाल से बात करने या न करने , दोनों में परेशानी।

भारत के पड़ोसियों में नेपाल ऐसा आखिरी देश होगा, जिससे भारत को कभी सुरक्षा संबंधी खतरे की आशंका होगी। ऐसा इसलिए क्योंकि भारत-नेपाल के संबंध खास माने जाते हैं।

आपको ऐसे बहुत देश नहीं मिलेंगे, जिसके पड़ोसी उन्हें उनकी सेना का हिस्सा बनने के लिए सैनिक उपलब्ध करवाते हों। भारतीय सेना में 38 इंफैनट्री यूनिट्स नेपाल के मशहूर गोरखाओं की हैं। कम से कम 38,000 नेपाली गोरखा भारतीय सेना को सेवाएं दे रहे हैं, जिसका नेपाल में भर्ती और पेंशन देने वाला ऑफिस भी है। जम्मू-कश्मीर में सीमा पर गोरखा सैनिक अब भी बलिदान देते हैं। 'भारत- नेपाल शांति तथा मैत्री संधि, 1950' ने संबंधों का आधार तैयार किया था। संधि के प्रावधानों के तहत नेपाली नागरिकों ने भारत में भारतीय नागरिकों जैसी सुविधाओं और अवसरों का लाभ उठाया। करीब 60 लाख नेपाली नागरिक भारत में रहते और काम करते हैं।

तो यह खास संबंध खराब कैसे हुए? इसके पीछे दो कारण थे।

पहला, नेपाली राजनेताओं की नेपाल के रणनीतिक हितों पर ज्यादा नियंत्रण पाने की महत्वाकांक्षा, जो उन्हें लगता है कि भारतीय हितों के अधीन है।

दूसरा, नेपाल के चीन के साथ संबंधों दो एशियाई शक्तियों के बीच स्थित नेपाल ने दोनों देशों से भरपूर लाभ उठाने में अपनी भूरणनीतिक स्थिति का फायदा उठाया। खासतौर पर 1975 के बाद से, जब भारत ने नेपाल के पड़ोसी राज्य सिक्किम को अपना हिस्सा बना लिया। भारत के संकोच के बावजूद नेपाल अपने क्षेत्र को 'शांतिक्षेत्र घोषित करना चाहता था, जिसका भारत के लिए मतलब था 1950 की संधि का खंडन। नेपाल लगातार इस प्रस्ताव को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहा और 1990 तक उसे पाकिस्तान और चीन समेत 112 देशों का समर्थन मिल गया था।

रणनीतिक रूप से भारत के लिए शांतिपूर्ण नेपाल का मतलब चीन के साथ लंबे और महत्वपूर्ण हिमालयी सीमांत का बाकी की भारत-चीन सीमा के तनाव की तुलना में स्थिर रहना रहा है। हालांकि नेपाल में बढ़ते नस्लीय राष्ट्रवाद की वजह से 1990 में व्यापार और परिवहन समझौते भंग हो गए और भारत व नेपाल की मुद्रा अलग-अलग हो गई। इसने भारत को मजबूर कर दिया कि वह नेपाल के लिए कोलकाता बंदरगाह की सेवाएं बंद कर दे, जिससे नेपाल की जीडीपी 1988 के 9.5% के आंकड़े से गिरकर 1.5% पर आ गई। नेपाल द्वारा चीन से हथियार आयात करना भी संबंधों के कमजोर होने का कारण रहा। हालांकि रिश्ते संभलते रहे, लेकिन खटास बढ़ती रही क्योंकि नेपाली सरकार अपनी कूटनीतिक स्वायत्तता साबित करने के लिए चीन संबंधों को भी बराबर महत्वपूर्ण साझेदार दिखाने का प्रयास करती रही। हालांकि भारत भी बराबर का दोषी था क्योंकि जब चीन काठमांडू पर प्रभाव जमा रहा था, तब भारत ने नेपाल के लिए कुछ करने का प्रयास नहीं किया।

नेपाल के कालापानी, लिपुलेख और लिंपियाधुरा से जुड़े मुद्दे पर नेपाल का मौजूदा हठ धीरे-धीरे कमजोर होते संबंधों का ही नतीजा है। 18 सितंबर 2015 को नेपाल ने नया संविधान अपनाया जिसमें भारत समेत बड़ी संख्या में नेपालियों को लगा कि इसमें नेपाल में रहने वाले भारतीय मूल के मधेशियों का ध्यान नहीं रखा गया। मधेशी आंदोलन से नेपाल की मुसीबत बढ़ी और वहां ऐसा माना गया कि यह भारत के इशारों पर हो रहा है। इससे नेपालियों को चीन के साथ ज्यादा व्यापक संबंधों की तरफ जाने का मौका मिला, खासतौर पर माओवादी प्रभुत्व वाली केपी शर्मा ओली की सरकार के साथ।

सीमा मुद्य तब सामने आया जब भारत ने 10 नवंबर 2019 को नक्शे में कालापानी, लिपुलेख और लिपियाधुरा को अपने हिस्से में दिखाया। इसके बाद 8 मई 2020 को लिपुलेख पास से होते हुए कैलाश मानसरोवर के लिए सड़क का औपचारिक उद्घाटन हुआ। नेपाल ने इस कदम का जोरदार विरोध किया।

प्रधानमंत्री ओली की कैबिनेट ने 18 मई 2020 को नया राजनीतिक नक्शा जारी करने का फैसला लिया, जिसमें नेपाल ने भारत के नियंत्रण वाले क्षेत्रों को परेशानी शामिल किया। नेपाली संसद ने इसपर संविधान संशोधन भी पारित कर दिया। ऐसा करने का समय खासतौर पर अजीब था क्योंकि यह तभी हुआ जब चीन, भारत पर सिक्किम और खासतौर पर लद्दाख में दबाव बना रहा था। नेपाल जोर दे रहा है कि भारत को सीमा मुद्दे पर बात करनी चाहिए, भले ही वर्चुअल मीटिंग हो। उसका तर्क है कि भारत सीमा पर संघर्ष को लेकर चीन से बात कर रहा है लेकिन भारत-नेपाल सीमा मुद्दे पर बात न करने का कारण महामारी को बता रहा है। समय का चुनाव और भारत पर दबाव बनाने के तरीके से भारत यह मानने को मजबूर है कि नेपाली सरकार चीन के बाहरी दबाव में काम कर रही है। हालांकि नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी में आंतरिक बंटवारे से कुछ उम्मीद है, जहां पार्टी के कुछ लोग ओली द्वारा भारत से विवाद बढ़ाने की आलोचना कर रहे हैं, वह भी ऐसे समय जब दुनिया का ध्यान महामारी पर है।

नेपाल का बढ़ता राष्ट्रवाद और उसके नेताओं की इस भावना को भारतीय हित के खिलाफ इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बाहरी मदद के साथ बनी रह सकती है। भारत को आज नहीं तो कल आगे का रास्ता तय करना होगा। सीमा मुद्दे पर नेपाल से बात करना उस समस्या को स्वीकार करना माना जाएगा, जिससे भारत ने इनकार किया है। और ऐसा न करना चीन को नेपाल पर अपना प्रभाव बढ़ाने और भारत पर दबाव बनाने का एक और मौका दे देगा। भारत को नेपाल से बात करना ही होगा।

भारत का ग्रैंड ओल्ड मैन जो ब्रिटेन का पहला एशियाई सांसद बन गया।


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1892 में एक भारतीय को ब्रिटिश संसद के लिए कैसे चुना गयाआज हमारे लिए इस ऐतिहासिक घटना की क्या प्रासंगिकता हो सकती है? 

दादाभाई नौरोजी (1825-1917) इन दिनों एक अपरिचित नाम है जिसे आज सब जानते है। 

फिर भी, हाउस ऑफ कॉमन्स में बैठने वाले पहले एशियाई होने से अलग, वह महात्मा गांधी से पहले भारत में सबसे महत्वपूर्ण नेता होने के साथ-साथ वैश्विक महत्व के नस्ल-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी भी थे। 

अब, विभिन्न वैश्विक संकटों के बीच, वह पहले से ही याद किए जाने के योग्य है। 

उनका जीवन प्रगतिशील राजनीति की शक्ति के लिए एक ,मिसाल है - और इस तरह की राजनीति का निर्धारण पीछे इतिहास के पन्नों और   गहरे अध्यायों में भी प्रकाश डालता है। 

नौरोजी का जन्म बॉम्बे में गरीबी में हुआ था। वह एक नोवल एक्सपेरिमेंट - 'मुफ्त पब्लिक स्कूलिंग' - के शुरुआती लाभार्थी थे और उनका मानना था कि सार्वजनिक सेवा उनकी शिक्षा के लिए नैतिक ऋण चुकाने का सबसे अच्छा तरीका है। 

कम उम्र से, उन्होंने प्रगतिशील कारणों का सामना किया जो गहराई से अलोकप्रिय थे। 

1840 के दशक के अंत में, उन्होंने भारतीय लड़कियों के लिए स्कूल खोले, जो रूढ़िवादी भारतीय पुरुषों के क्रोध का सामना करते थे। लेकिन उनके पास एक राय रखने और दूसरे के विचारों को मोड़ने की आदत थी। 

पांच साल के भीतर, बॉम्बे में लड़कियों के स्कूल विद्यार्थियों के साथ काम कर रहे थे। नौरोजी ने बार कॉउंसिल को लिंग समानता की प्रारंभिक मांग को प्रायोरिटी में रखकर जवाब दिया। भारतीयों ने तर्क दिया, एक दिन "यह समझेंगे कि महिला को इस दुनिया के सभी अधिकारों, विशेषाधिकारों और कर्तव्यों एन्जॉय करने का उतना ही अधिकार है  जितना कि पुरुष को।"

 

1855 में, नौरोजी ने ग्रेट ब्रिटेन की अपनी पहली यात्रा की। 

नौरोजी अपनी कड़ी मेहनत के बल पर धन और समृद्धि खूब कमाई अपर वो इस बात से स्तब्ध थे कि उसका अपना देश इतना गरीब क्यों है। 

इस प्रकार दो दशक के पथ-विहिन आर्थिक विश्लेषण की शुरुआत हुई, जिसके तहत नौरोजी ने ब्रिटिश साम्राज्य के सबसे पवित्र शिबलों में से एक को चुनौती दी: यह विचार कि साम्राज्यवाद औपनिवेशिक विषयों में समृद्धि लाता है। 

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जब वह आयरिश-भारतीय राष्ट्रवादी एनी बेसेंट से मिले तब नौरोजी लगभग 90 वर्ष के थे

विद्वता की धार में, उन्होंने साबित किया कि सटीक विपरीत सच था। 

साम्राज्यवाद ने उपनिवेशों से "धन की निकासी" का कारण बनने का उनका विचार, यूरोपीय समाजवादियों, विलियम जेनिंग्स ब्रायन जैसे अमेरिकी प्रगतिशील और संभवतः कार्ल मार्क्स को भी प्रभावित  किया। धीरे-धीरे, भारत में महिला शिक्षा के साथ, नौरोजी ने जनता की राय को बदलने में मदद मिली।

  

कुछ आयरिश राष्ट्रवादियों के मॉडल के बाद, उनका मानना था कि भारत को भी राजनीतिक परिवर्तन की जरुरत है : भारत में इस तरह के कुछ रास्ते नहीं थे। और इसलिए, 1886 में, उन्होंने अपना पहला अभियान होलबोर्न से लॉन्च किया, और ध्वनिमत से हार गए। 

पर उन्होंने हार नहीं मानी। अगले कुछ वर्षों में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद और ब्रिटेन में प्रगतिशील आंदोलनों के बीच गठबंधन किया। नौरोजी महिलाओं के मताधिकार के मुखर समर्थक बन गए। 

उन्होंने आयरलैंड के घरेलू शासन का समर्थन किया और लगभग आयरलैंड से संसद के लिए खड़े हुए। और उन्होंने खुद को श्रम और समाजवाद के साथ जोड़ दिया, पूंजीवाद की आलोचना की और मजदूरों के अधिकारों के लिए आह्वान किया।

 

सरासर दृढ़ता के माध्यम से, नौरोजी ने ब्रिटनों के एक व्यापक स्पेक्ट्रम को आश्वस्त किया कि भारत को तत्काल सुधार की आवश्यकता थी - जिस तरह महिलाएं वोट की हकदार थीं, या कार्यकर्ता आठ घंटे का दिन। उन्हें काम करने वाले, संघ के नेताओं, कृषिविदों, नारीवादियों और पादरी के समर्थन के समर्थन मिले।

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ब्रिटेन में महिला मताधिकार लीग सदस्यता के लिए नौरोजी की रसीद

सभी ब्रिटन भावी भारतीय सांसद से खुश नहीं थे। वह एक "कालीनबाज," और "हॉटनॉट" के रूप में चित्रित किया गया था। 

ब्रिटिश प्रधान मंत्री से कम नहीं, लॉर्ड सैलिसबरी ने नौरोजी को एक अंग्रेज के वोट के अवांछनीय "अश्वेत व्यक्ति" के रूप में लिया। 

1892 में, लंदन के सेंट्रल फिन्सबरी में मतदाताओं ने उन्हें पांच वोटों के अंतर से संसद में चुन लिया (उसके बाद उनकी डबिंग दादाभाई नैरोजी -मेजोरिटी के साथ हुयी )। 

दादाभाई नौरोजी, लिबरल पार्टी के सांसद के रूप में, संसद में अपना केस बनाने में बहुत कम समय गंवाते हैं। 

उन्होंने ब्रिटिश शासन को "दुष्ट" घोषित किया, एक ऐसी ताकत जिसने अपने साथी भारतीयों को गुलामों से बेहतर नहीं बनाया। उन्होंने औपनिवेशिक नौकरशाही को बदलने और भारतीय हाथों में लाने के लिए कानून बनाया। 

यह सब शून्य हो गया। सांसदों ने ज्यादातर उनकी दलीलों को नजरअंदाज किया और नौरोजी 1895 में फिर से चुनाव हार गए। 

यह नौरोजी का सबसे बुरे व्यक्त थे। 

किसी तरह, नौरोजी ने अपना आशावाद बनाए रखा। उन्होंने अपनी मांगों में वृद्धि करते हुए अधिक प्रगतिशील निर्वाचन क्षेत्रों - प्रारंभिक मजदूरों, अमेरिकी साम्राज्यवाद-विरोधी, अफ्रीकी-अमेरिकियों और काले ब्रिटिश कार्यकर्ताओं को गले लगाया। 

भारत, उन्होंने अब स्व-शासन या स्वराज की आवश्यकता घोषित की। 

स्वराज, उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमंत्री, हेनरी कैंपबेल-बैनरमैन से कहा, साम्राज्यवादी अधर्म के लिए "प्रतिशोध" के रूप में काम करेंगे  बदला लेंगे। 

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ट्रेड यूनियनों के लिए नौरोजी के समर्थन का एक पोस्टर

ये शब्द और विचार दुनिया भर में गूंज उठे: इन्हें यूरोपीय समाजवादी हलकों, अफ्रीकी-अमेरिकी प्रेस और गांधी के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के एक बैंड द्वारा उठाया गया था। 

स्वराज एक दुस्साहसिक मांग थी: मानव इतिहास में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से एक नीच लोग कैसे अधिकार प्राप्त कर सकते हैं? 

नौरोजी ने अपनी विशिष्ट आशावाद और कभी न कहने वाली प्रवृत्ति को बरकरार रखा। 

अपने अंतिम भाषण में, जब वह 81 वर्ष के थे, तब उन्होंने अपने राजनीतिक करियर में मिली निराशाओं को स्वीकार किया - "निराशा किसी भी दिल को तोड़ने और निराशा की ओर ले जाने के लिए पर्याप्त होगी और यहां तक कि, मुझे डर है, विद्रोह करने के लिए"। 

हालांकि, प्रगतिशील विचारों में दृढ़ता, दृढ़ संकल्प और विश्वास एकमात्र सच्चे विकल्प थे। "जैसा कि हम आगे बढ़ते हैं," उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्यों से कहा, "हम ऐसे साधनों को अपना सकते हैं जो हर स्तर पर उपयुक्त हो सकते हैं, लेकिन हमें अंत तक बने रहना चाहिए।" 

ऐसे शब्द आज की राजनीतिक बहस को कैसे सूचित कर सकते हैं? 

एक सदी बाद, नौरोजी की भावनाएं भोली लग सकती हैं - लोकलुभावनवाद, युगांतरकारी सत्तावाद और तीखे पक्षपात के युग में एक विचित्र रचनावाद। 

हमारा समय बहुत अलग है। 

ब्रिटिश संसद में एशियाई सांसदों की वर्तमान फसल, आखिरकार, ब्रिटेन के शाही इतिहास पर अस्पष्ट दृष्टिकोण के साथ पुनर्गणना ब्रेक्सिटर्स शामिल हैं। 

भारत हिंदू राष्ट्रवाद की चपेट में है जो पूरी तरह से अपने संस्थापक सिद्धांतों के साथ है - सिद्धांत जो कि नौरोजी ने शिल्प करने में मदद की।

 

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लॉर्ड सैलिसबरी का सामना करते हुए नौरोजी का चित्रण करने वाला एक पंच कार्टून

यह कल्पना करना असंभव है कि नौरोजी ने, जो विस्तृत छात्रवृत्ति और रोगी अध्ययन के माध्यम से अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाते थे, नकली समाचार और वैकल्पिक तथ्यों में एक दुनिया का निर्माण करेंगे। 

और फिर भी, दृढ़ता, दृढ़ता, और प्रगति में विश्वास, नौरोजी के करियर की पहचान, आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। 

जब नौरोजी ने सार्वजनिक रूप से 1900 के दशक में स्वराज की मांग शुरू की, तो उन्होंने माना कि इसकी उपलब्धि में कम से कम 50 से 100 साल लगेंगे। 

ब्रिटेन अपने शाही क्षेत्र में था, और अधिकांश भारतीय स्व-शासन जैसे उदात्त विचारों पर विचार करने के लिए बहुत कम और गरीब थे। 

वह यह जानकर स्तब्ध रह जाता था कि उसके पोते एक स्वतंत्र भारत में रहते थे और गवाह थे, दूर से, ब्रिटिश साम्राज्य की मृत्यु। 

इस प्रकार, कुछ महत्वपूर्ण सबक: साम्राज्य गिर जाते हैं, निरंकुश शासन के पास जीवनकाल होता है, लोकप्रिय राय अचानक बदल जाती है। 

दक्षिणपंथी (वेस्टर्न ) लोकलुभावनवाद और अधिनायकवाद की ताकतें आज भले ही अग्रणी  हों, लेकिन नौरोजी हमें दीर्घकालिक दृष्टिकोण अपनाने के लिए सलाह देंगे। 

वह हमें प्रगतिशील आदर्शों में विश्वास बनाए रखने मदद करेगा और सबसे बढ़कर, दृढ़ रहने के लिए। 

दृढ़ता और फौलादी दृढ़ संकल्प सबसे अप्रत्याशित परिणाम दे सकते हैं - एक सदी पहले ब्रिटिश संसद के लिए भारतीय चुनाव जीतने की तुलना में कहीं अधिक अप्रत्याशित सोच थी।


आखिर सरकारी योजनाओं के सफल न होने पाने के पीछे क्या कारण है ???

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आखिर मोदी के विचारों की असफलता के पीछे कौन है ?

क्यों अच्छी योजनाएं सफल नहीं हो पातीं।

हमारे माननीय प्रधानमंत्री के समक्ष है, जिसका वे सामना कर रहे हैं? यह बिल्कुल कॉर्पोरेट जैसी समस्या है, जिससे आज हमारा देश गुजर रहा है। स्वच्छ भारत योजना से लेकर जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर), रेरा (भू-संपदा विनियामक प्राधिकरण ) या बीस लाख करोड़ रुपए के वित्तीय पैकेज तक, सभी की मंशा अच्छी थी और सभी की शुरुआत देशहित में की गई। लेकिन बात जब जमीनी स्तर पर इनके क्रियान्वयन की आती है तो हमें बड़ी असफलता नजर आती है।ऐसा क्यो?

ऐसा लगता है कि जैसे सभी योजनाएं बहुत धीरे-धीरे ऊपर से नीचे पहुंच रही हैं। जमीनी स्तर पर कोई जिम्मेदारी नहीं ले रहा, शायद इसलिए क्योंकि जब किसी विचार या योजना की कल्पना की जा रही है, तो उसमें साझेदारों को शामिल नहीं किया जा रहा, उनसे क्रियान्वयन में आने वाले व्यवधानों पर चर्चा नहीं हो रही, जमीनी चुनौतियों को नहीं समझा जा रहा है। शायद कॉर्पोरेट ऑफिस (इस मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय) सिर्फ सीईओ से बातकर चीजें तय कर रहा है और फिर योजना तैयार कर क्रियान्वयन के लिए नीचे भेज दी जा रही है।

एक भी योजना जमीनी स्तर पर सही ढंग से लागू नहीं हुई, यहां तक की भाजपा शासित राज्यों में भी नहीं। जैसे स्वच्छ भारत योजना तहत मध्य प्रदेश के इंदौर शहर ने बेहतरीन प्रदर्शन किया लेकिन न ही प्रदेश की राजधानी भोपाल और न ही किसी भी भाजपा शासित राज्य का कोई भी शहर इस प्रदर्शन को दोहरा पाया। ऐसा क्यों?

कोई भी केस स्टडी साझा क्यों नहीं की गई, विशेष ड्यूटी में लगे अधिकारियों ने अपनी योजना, अपना ज्ञान अन्य राज्यों या अन्य शहरों को क्यों नहीं दिया?

अगर यह मोदी का विचार था कि 20 लाख करोड़ के पैकेज से अर्थव्यवस्था को उबारने का प्रयास किया जाए, तो किसने इसे निष्फल बनाने का फैसला लिया?

20 लाख करोड़ के पैकेज का डंका तो खूब पिटा पर भारत के अलावा किसी और देश या विशेष व्यक्ति समूह या फिर दुनिया में एक भी बड़े अर्थशास्त्री ने इसकी तारीफ या सराहना नहीं की केवल भारत सरकार के वित्तमंत्री और नेताओं को छोड़कर। यह सामान्य बोध की बात थी कि हमें मध्यम और निम्न वर्ग के हाथों में पैसा देने की जरूरत है ताकि लोग आगे आएं और विकास का चक्का चलाएं।लेकिन वित्तमंत्री और उनके अर्थशास्त्री इस बात को समझ नहीं पाए।

 

 यह स्पष्टरूप से जमीनी स्तर पर जिम्मेदारी न लेने का मामला है और क्योंकि इसमें लोगों को शामिल नहीं किया गया, जैसा कि किसी कॉर्पोरेट में भी होता है, जहां संबंधित लोगों से चर्चा किए बिना और उनकी भौगोलिक स्थिति समझे बिना योजना बना दी जाती है। इस तरह बिना किसी निगरानी या उत्तरदायित्व के योजना का क्रियान्वयन जमीन पर मौजूद कर्मचारियों पर छोड़ दिया जाता है।

बात जब उत्तरदायित्व की हो रही है तो मैं यह सोच रहा था कि आप जब किसी योजना की शुरुआत करते हैं तो क्या इसका तरीका भी तय करते हैं कि योजना की सफलता को कैसे मापा जाएगा? क्योंकि आपने उस योजना के लिए एक राशि का आवंटन किया है, तो आप उसकी किसी भी प्राइवेट कंपनी में एक सीईओ अपना मोल या योग्यता 6 साल में साबित न कर पाए, तो उसे और कितना वक्त दिया जाता है? क्या यह सीईओ के प्रबंधन की शैली है या ब्यूरोक्रेसी को संभालने में अनुभव की कमी? या आखिर क्यों मोदी के सारे मंत्री और नौकरशाह मोदी की वह करने में मदद नहीं कर रहे हैं, जिसे वे क्रियान्वित करना चाहते हैं?

इस पूरी प्रक्रिया में मेरा कहने का उद्देश्य बस इतना सा है की शासन की कोई भी योजनाये आये चाहे देश सुधार नीति हो या फिर देश की जनता को फाइनेंसियल हेल्प करना , या फिर जैसा आप उन्हें अपने पैरो में खड़े कर आत्मनिर्भर करना चाहते है। आपकी नीति सही हो सकती है पर प्लानिंग और इम्प्लीमेंटेशन में अंतर है जिससे जनता त्रस्त है।

और यह भी देखना बहुत जरुरी है की यदि जनता की मदद हो या न हो पर उनके ऊपर कर्जा और भखे मरने का विकल्प न बस रह जाये। क्योकि डगर कठिन है सब अच्छा रहा तो निच्छित ही आपका यश देश दुनिया में फैलेगा परन्तु यदि असफल रहे तो वही लोगो के सामने आप गिर जायेंगे। क्योकि यहाँ वन साइडेड डिसिशन नहीं लिया जा सकता प्रोस  एंड  कोन्स  दोनों देखना पड़ता है।

यह मेरी अपनी सोच है सब लोगो की सोच अलग अलग हो सकती है यदि आपको भी कुछ साझा करना होतो हमें कमेंट बॉक्स में कमेंट करें।


भारतीय महिलाओं पर चित्रित्त मनोव्यथा कोविड -19 के समय।

लॉकडाउन पर महिलाओं की मनोव्यथा पर आधारित एक स्टोरी , जो बताती है की महिलाये कितना व्याकुल है अपनी सखियों से मिलने के लिए पर सरकार की सख्ती और मास्क , सोशल डिस्टैन्सिंग ,सेनिटिज़ेशन आदि क्या करें। समय निकालकर जरूर पढ़े अच्छी लगे तो कमेन्ट जरूर करें। 

दोस्तों से दूरी ने जीवन से रंग मानो गायब ही कर दिए थे। ऐसे में एक मुलाक़ात का निमंत्रण जैसे सारी आशंकाओं को परे धकेलने की कोशिश करता मन हर्षा गया। ज़िम्मेदारी के अहसास ने नई तरक़ीब सुझाई।

सखियों की बगिया

लॉकडाउन, कोविड -19, क्वारंटाइन- ये भरी-भरकम शब्द न कभी सुने, न जाने थे। लेकिन कितने महीनों से ये हमारे आसपास, मन मस्तिष्क में समाए हुए है। सभी टीवी चैनलों पर कोरोना अपडेट, फिल्मी सितारे की अलविदा की खबरे, बस यी चली रही थीं।

ऐसे मायूस समय में एक सखी का फोन, फिर दोस्तों की महफिल सजाने का व्हाट्सएप मैसेज देख दिल बाग-बाग हो गया। लगा जैसे इतने महीनों से इसी मैसेज का इंतजार था इंतजार क्यों नहीं होगा! जब-जब अपनी अलमारियां खोलते थे, लगता था जैसे हमारी खड़ियां, जूलरी, पर्स, फुटवियर सभी तुमको चिढ़ा रहे हो, जला रहे हो। तैयार होना ही जैसे भूल ही गए थे। दो-चार जोड़ी कपड़ों में ही कितने महीने निकाल दिए थे।

कितने महीनों से झाडू-पोंछा, बर्तन-कपड़े, टीवी इंटरनेट ही हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गए थे। पिंजरे में बंद पक्षियों की सी हालत हो गई थी। किसी ने सच ही कहा है. रूपए हम बैंकों में रख सकते हैं, सोना-चांदी लॉकर्स में रख सकते हैं, लेकिन दिल की बात रखनी हो, कहनी हो तो दोस्तों की महफिल ही चाहिए। शायद यही सखी की सोच भी होगी।

एक बार फिर से बॉट्सएप मैसेज को पढ़ने लगी-'कल 6:00 बजे सभी सखियों को पिंक ड्रेस में पार्क में मिलना है। वहां सोशल डिस्टेसिंग के साथ हाउजी भी खेली जाएगी।'

वाह!! मन गदगद हो गया। सखियों को मिलना और हाउजी भी खेलना, सोने पे सुहागा, क्या सच में हम फ्रेंड्स फिर से मिलेंगे? नहीं-नहीं, कोई सपना तो नहीं। खुद को मिच करके देखा।

अरे नहीं... सच में हमें पार्क में मिलना है।बहुत से विचार उमड़-भुगड़कर आने लगे। स्वयं से ही प्रश्न किया, क्या मिलना उचित है और फिर स्वयं को समझाते हुए ही सोचने लगी ऐसे तो बिना वजह हम कितने महीने से बाहर नहीं निकले हैं, पर महीने में एक बार सोशल डिस्टेंसिंग के साथ कॉलोनी के पार्क में मिलना कुछ गलत भी नहीं। क्यों में इतना सुनहरा अवसर छोडू।

क्या उचित, क्या अनुचित इस सोच को तक में रख फ्रेड्स से मिलने जाने का निश्चय कर ही लिया। यह तय कर मन मयूर नाच उठे। या पहनूँगी ? साड़ी स्यूट या जीस-टॉप ? फूटबियर पर्स पिंक है कि नहीं। यही सोचते हुए झटपट अपनी अलमारी को खोला अरे वाह ! ख़ुशी की लहर दौड़ उठीं। सब कुछ पिंक ड्रेस कोड के अनुसार मिल गया।

रात कल के इंतजार में कटी और लो, यह कल आ गया। सुबह से बच्चे और पतिदेव को बड़े हषोल्लास के साथ कहने लगी, आज तो मुझे छह बजे पार्क में सखियों की महफिल में जाना है।' पतिदेव ने हंसते हुए कमेंट किया, 'खुश तो ऐसे हो रही हो जैसे किसी चाहने वाले ने पार्क में मिलने बुलाया है। और यह भी ड्रेस कोड के साथ जिससे वह आसानी से पहचान है। पति और बच्चे हसने लगे।' उफ। कितने दिनों से कोई अच्छे कपड़े नहीं, श्रृंगार नहीं, ब्यूटी पार्लर , शॉपिंग कुछ भी तो नहीं । यही तो हम औरतों की ख्वाहिश रहती हैं, पर ये पति क्या समझें। इन्ही विचारों के साथ फटाफट लंच किया, काम समेटा। सोचा थोड़ी देर आराम ही कर लूं, पर दिल के किसी कोने में अज्ञात भय ने सोने नहीं दिया जाऊँ या ना जाऊँ की कशमकश के साथ करवट ही बदलती रही। कहीं हम सरकार के आदेश की अवहेलना तो नहीं कर रहे?

खैर इंतजार की घड़ियां खत्म हुई । दिल तो खूब उछल रहा था। अपनी सुविधा को तिलांजलि दे, अपने पिंक ड्रेस कोड के साथ महीनों बाद सज उठी। तैयार होने में कुछ सम्झ में नहीं आ रहा था लिपस्टिक लगाये या नहीं ! मास्क तो पहनना है, कोई बात नहीं, में तो लगा ही लेती हु, कहीं गलती से मास्क हट गया तो?

इतने में डोरबेल बजी। 'ओहो! आप आ गई! हेलो ,हाय भी नहीं। सीधे उनकी साड़ी पर नजर गई। मुंह से निकल ही गया, 'अरे वाह पिंक साड़ी बहुत सुंदर है, मास्क भी मैचिंग है। मैं भी तैयार हूँ। बस मास्क लगाना है। सेनिटाइज़र , पैन, हाउजी पर पिंक पर्स में झटपट डाले और समय से पांच मिनट पहले ही कॉलोनी के विशाल पार्क में, जहां अभी इतनी चहल-पहल नहीं हुआ करती, पहुंच गए। देखते ही देखते सभी सखियां मास्क और सेनिटाइज़र हाथ में लिए चिड़ियों की  चहक से भी ज्यादा चहकती हुई आ गई। चारों तरफ हरियाली ही हरियाली। प्रकृति के आनंद के साथ सजी-भजी फ्रेंड्स का मिलाप लग रहा था कि इस पार्क की तितलियां भी शायद हमें देखकर शरमा रही होगी। भले ही किसी की हसी, मुस्कुराहट मास्क के पीछे नहीं दिख रही थी, पर सभी की आंखें दिल की बात बयां कर रही थीं।

अब तो होंटो की जगह आंखों ने ले ली है। अब तो आंखें ही बोलेंगी और मुस्कराएंगी। सभी सखियां एक-दूसरे को निहार रही थी। मास्क की स्ट्रिप्स के पीछे भी कान के झुमके लहरा रहे थे। 'अरे दूर-दूर रहो'- बार-बार दिल से आवाज आ रही थी और उसी आवाज को सुनते हुए हम सखियां एक से दो मीटर की दूरी का ध्यान रखते हुए हंसी ठिठोली के साथ, पार्क में घूमने चंद लोगों और खेलते बच्चों के कौतूहल का केंद्र बिंदु बनी रहीं।

बातचीत के सिलसिले के साथ पहले की तरह ही हाउजी के दो राउंड्स के लिए रुपए इकट्ठे किये। उस पर सैनिटाइजर लगाया। कोई अखबार, कोई चटाई, कोई कुर्सी - जो जैसी चीज साथ लेकर आई थी, उसी पर दूर-दूर बैठकर हाउजी का मज़ा लिया गया। कई सखियां जो लेट हुई फोन से भी उन्हें सूचित किया और कइयों को कोरोना के डर ने इस खुशी से महरूम रखा। पर हम सात-आठ फ्रेंड्स तो इकट्ठे हुए लेकिन खुशी और डर के साथ अपनी सुरक्षा को नजरअंदाज ना किया। आज तो जितनी फ्रेंड्स आई, वही बहुत लगी।  हरियाली के साथ फोटो सेशन किया।हाउजी और सखियों की बातचीत से ही हमारा मन कुछ हल्का हुआ। आज तो खाने-पीने की आवश्यकता भी महसूस नहीं हुई। अपनी पानी की बोतल ही काफी थी। धीरे-धीरे सूर्य अस्त होने लगा, लेकिन किसी भी सखी को बिछड़ने की इच्छा ही नहीं हुई। इस सबके साथ एक अज्ञात भय भी छाया था, माहोल में निश्चितता नहीं थी।

ढेरों फोटोज लिए, हालांकि मास्क ने हमारे आधे चेहरों को ढाका  हुआ था, लेकिन सोशल डिस्टेंसिंग के साथ फोटो सेशन का लुत्फ लिया। साथ ही घर-परिवार की हिदायतें, प्रशासन की हिदायतें, यहां तक कि वह कचरे की गाड़ी का अनाउंसमेंट भी कानों में गूंजने लगा- 'सोशल डिस्टसिंग, सोशल डिस्टेंसिंग।' सभी सखियों की जुबान पर बात आ ही गई कि इतना डरते-डरते एक-दूसरे से मिल भी लें तो क्या ! क्यों न हम परिस्थितियां सामान्य होने तक वर्चुअल किटी करें।

वाट्सएप पर गेम और हाऊजी का मजा लें, ऑनलाइन में भी ड्रेस कोड रख सकते हैं। सज -संवर कर बैठ सकते हैं, अपने दिल की बात भी कर सकते है, वह भी बिना किसी डर के।

इस सोच के साथ वर्चुअल किटी में मिलने का वादा कर पूरे उत्साह, उमंग और जोश के साथ, ऊर्जा से रोमांचित हम अपने अपने घर को लौटे, तो मन में ऐसा भाव था जैसे फ्रेडस में मिलकर कोई गढ़ जीत लिया हो।


तर्क सही न्यायिक प्रकिया क्या है,सिर्फ त्वरित दंड या पुनर्वास का अवसर।

भारतीय संविधान और न्यायिक प्रक्रिया

यहाँ त्वरित दंड जैसे मृत्यु दंड उनके लिए न्याय संगत है जहा जुर्म करने वाला पहले ही दोषी स्पष्ट है परन्तु जब आपको फसाया गया होतो इससे निर्दोषो को सजा मिलती है अपितु मुजरिम के। सजा का दूसरा पहले ये भी देखा जाता है की आपने किन परिस्तिथियों में जुर्म किया। और

क्या एनकाउंटर और मृत्युदंड जैसे सजा से औरों को सबक मिलता है ???

महिला सुरक्षा पर बात होने पर परिवार को बुजुर्ग महिलाओं ने मुझे समझाने की कोशिश की कि जब तक घृणित अपराधों के लिए मृत्युदंड जैसी कड़ी सजा नहीं दी जाएगी, तब तक समाधान नहीं होगा। उनकी धारणा है कि आजीवन कारावास कोई सजा ही नहीं है। मैंने कहा अपने लिए आजीवन कारावास की कल्पना करें, तब उन्हें एहसास हुआ की ये कितना भयावह होगा। लोकतंत्र और सभ्य समाज में न्यायिक प्रक्रिया के वास्तव में चार उद्देश्य होने चाहिए- रोक, दंड, सुधार और पुनर्वास। आम लोगों की सोच में दो पहलू ही सामने आते हैं। तीसरे और चौथे पहलू को समझने के लिए तीन उदाहरण ले लीजिए।

>>पहला उदाहरण है शाहिद (आजमी) नाम के वकील का, जिसकी जिंदगी पर फिल्म भी बनी। मुंबई में 1992 के हिंदू- मुस्लिम फसाद के बाद उसे झूठे केस में फंसाया गया और सबूत के अभाव में छोड़ दिया गया। कुछ साल बाद टाडा के तहत उसे दिल्ली की तिहाड़ जेल में सात साल बिताने पड़े। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरी होकर उसने वकालत की पढ़ाई की। फिर झूठे मामलों में फंसे लोगों के केस लड़े और 17 लोगों को रिहा करवाया।

2010 में उसकी हत्या कर दी गई। हत्यारों को अब तक सजा नहीं मिली।

 

>>अगला किस्सा है फूलन देवी का। पति द्वारा उत्पीड़ित दलित महिला डाकुओं के गिरोह में शामिल हो गई। कुछ समय बाद उसके साथ दुष्कर्म हुआ। एक साथी ने उसे बचाया और दोनों साथ हो लिए। फिर झगड़ा होने पर गिरोह के कुछ लोगों ने हफ्तों उसके साथ दुष्कर्म किया। जब वह बचकर निकली तो 22 लोगों की हत्या कर दी। 11 साल जेल में रही। रिहा होकर दो बार सांसद बनी। 2001 में फूलन देवी की हत्या हो गई। हत्यारे को 2014 में उम्रकैद दी गई। फूलन ने गुनाह जरूर किया, लेकिन जिन परिस्थितियों में अपराध हुए, उसके चलते सजा के साथ-साथ,नए सिरे से जिंदगी जीने का मौका मिलना चाहिए था।

 

>>मनोरंजन ब्यापारी की कहानी प्रेरक है। गरीब दलित होने के कारण वे पढ़ नहीं पाए और शोषण झेला। फिर जेल में डाल दिए गए जहां किसी ने पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। व्यापारी आज प्रसिद्ध बंगाली लेखक हैं।

जेलों में कई ऐसे मनोरंजन, शाहिद, फूलन हो सकते हैं, जो परिस्थितिवश वहां पहुंचे। कहीं इसका कारण झूठे इल्जाम, कहीं बदला तो कहीं अन्याय के खिलाफ गैरकानूनी लड़ाई है।

इनमें कई लोग ऐसे हैं, जिन्हें मौका मिले तो समाज में बड़ा योगदान दे सकते हैं, बशर्ते सामाजिक स्तर पर हम उन्हें दूसरा मौका देने हो रहे हैं। जैसे शिमला में कैदी कैफे चला रहे हैं और केरल,मध्यप्रदेश में कैदी मास्क बना रहे हैं।

 

पिछले दिनों यूपी में हमने देखा कि सरकार और प्रशासन इसे खुद कमजोर बना रहे हैं। यदि यूपी में हुई घटनाओं को सामाजिक स्वीकृति देते हैं, न्यायोचित स्वीकृति ठहराते हैं तो देश में जंगलराज फैलने का डर है। इसका त्वरित जवाब जरूर मिलेगा, लेकिन वह शिकार ज्यादा और न्याय कम होगा। आज पुलिसकर्मी मारे जाएंगे, कल कोई अपराधी और परसों ?

 कुछ लोग मानते हैं कि विशेष प्रकार के लोग (किसी वर्ग, जाति, धर्म, लिंग, इत्यादि) हिंसा और जुर्म करते हैं। यदि यह धारणा सही है, तो निष्कर्ष यह है कि उस एक व्यक्ति को फांसी देने या एनकाउंटर करने से समस्या हल नहीं होगी। हमें उन सामाजिक और राजनैतिक कारणों को समझना होगा जिनसे लोग जुर्म की ओर जाते हैं। हमें ऐसी न्यायिक प्रक्रिया की मांग करनी चाहिए जिसे हम अपने खिलाफ स्वीकार करने को तैयार हों। यानी, यदि हम खुद कटघरे में हों, जुर्म के आरोपी या अपराधी हों, तो न्यायिक व्यवस्था से हमें क्या उम्मीद होगी? अपना पक्ष रखने के मौके से पहले ही एनकाउंटर? अपराधी करार दिए जाने के बाद मृत्युदंड? या शाहिद, फूलन देवी या मनोरंजन ब्यापारी की तरह सुधार और पुनर्वास का अवसर भी? 

हां पर कुछ घिनोने जुर्म जैसे छोटे -छोटे बच्चो का रेप , वीभत्स हत्या बहुत बेहरमी के साथ और भी कई जघंन्य अपराध में कठोर से कठोर दंड के पक्ष में मैं स्वयं हूँ।

क्योकि भारत में ये भी देखा गया है की न्यायिक प्रक्रिया इतनी ढीली है की जघन्य अपराध के अपराधियों को भी सजा मिलने में बहुत देरी हो जाती है और वो बैल में रिहा होकर अपराध करते है पीड़ितों और उनके परिवारों को डरते धमकाते है , और तो और यहाँ तक जेल से बहार आकर चश्मदीद गवाहों को भी मार देते है या गजब कर देते है बहुत से ताज़ा उदाहरण है आज अपने बीच जैसे निर्भया केस में मृतक पीड़िता को इन्साफ मिलने में 7 साल लग गए , जिसको लेकर आज देश में निर्भया कानून बना है। 

इसलिए यहाँ यह बहुत जरुरी है की लोगो के मन में कोर्ट और भारत के कानून के प्रति सम्मान पैदा हो और ये तब होगा जब हम अपनी न्यायिक प्रक्रिया में थोड़ा बदलाव करे , लोगो को नये त्वरित मिले जिससे जनता के मन में कानून के प्रति सद्भावना और सम्मान पैदा हो।

दोस्तों आज का आर्टिकल आपको कैसा लगा कृपया कमेंट बॉक्स में अपनी राय जरूर दे। धन्यबाद।।


नार्थ ईस्ट इंडिया की सुंदरता के बारे में सच्ची स्टोरी , प्रकृतिक सुंदरता, संस्कृति और एक वक्या ।

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दोस्तों आज हम आपको नार्थ इंडिया की सुंदरता के बारे में सच्ची स्टोरी बताने जा रहे है जिसे जानकार आप नार्थ इंडिया की संस्कृति , प्रकृतिक सुंदरता को अनुभव कर सकें।

आज भी हमारे भारत में बहुत से क्षेत्र ऐसे है जोकि विकसित नहीं है हर तरफ प्राकृतिक सुंदरता , स्वच्छ वातावरण , साफ आवो हवा है वो है नार्थ इंडिया जैसे क्षेत्र असम ,गुवाहाटी , नागालैंड , मिजोरम आदि।

चूँकि मैं इलेक्ट्रिकल क्षेत्र से सम्बंधित हूँ तो मेरे कलिग (Colleague) को रेलवे इलेक्ट्रिफिकेशन कार्य से गुवाहाटी असम भेजा गया जिस दौरान उन्हें जिस नार्थ इंडिया की प्राकृतिक सुंदरता , संस्कृति और कार्य करने में जो कठिनाइयों का सामना किया उसे इस प्लेटफार्म के माध्यम से बताने की कोशिश की है।  

आज जीवबुद्धि लोग और पढ़ें-लिखे संपादक हमेशा सरकार को कठिनाई वाले क्षेत्रों में विकास कार्य करने की सलाह देते हैं। जहाँ खूबसूरत हरियाली में प्रगति और टेररिस्ट के बीच हमेशा घर्षण होता है और जो लोग प्रोजेक्ट पर डेप्यूट होते हैं, वे हमेशा फिजिकल अटैक, फिरौती, अपहरण, जोखिम भरी जिंदगी की छाया में काम करते हैं। यहाँ कुछ अनुभव शेयर्ड है :

प्राकृतिक की गोद में बसा भारत का नॉर्थ -ईस्ट पार्ट:-

💓भारत के उत्तर पूर्व भाग में (नॉर्थ -ईस्ट पार्ट) , बिहू जैसे प्रसिद्ध त्योहार के अलावा। भारत का सबसे लम्बा ब्रिज (9.1-किमी लंबा पुल) ढोला-सदिया ब्रिज के रूप में भी जाना जाता है।ऑरेंज की खेती, सबसे बड़ी नदी आइसलैंड, रसीला चाय उद्यान, झरने, छिपे हुए गुफाएँ, नेचुरल रुट ब्रिज, मठ,लुप्तप्राय जानवर, साफ-सुथरे गाँव, नाचते हुए झरने, विभिन्न प्रकार के पक्षी, हाथियों, गैंडों, रेशम के जूते, हनी मधुमक्खियों के केंद्रों आदि का भय मुक्त मनमोहक दृश्य।

 

मैंने जो कुछ देखा उससे यह कह सकता हूँ कि पूर्वोत्तर भारत अद्वितीय है और आश्चर्य से भरा हुआ है । लोगों के अपराजेय आतिथ्य, बादल क्लॉउडी परिदृश्य, और पर्यावरण के अनुकूल जीवन शैली।


 यहां लोग सामाजिक ताने-बाने और समृद्ध सांस्कृतिक से वाकिफ नहीं हैं, पूर्वोत्तर भारत के कई सरकारी और निजी वेंडर,संगठन हैं,जो कार्य कर रहे हैं। पर गरीबी उस क्षेत्र के लिए एक अभिशाप है। लोग केवल स्थानीय भाषा को समझते है।

मेरे कलिग (Colleague) के साथ हुए कुछ वाकये :-

1st स्टोरी: -

 युवक ने ओवरहेड इलेक्ट्रिक लाइनें में सर्वेक्षण और डिजाइन में काम करने वाली एजेंसी की स्थापना की।  उन्हें तिनसुकिया सेक्शन(अरुणाचल की बॉर्डर से लगा हुआ जहा से गुवाहाटी 480 कम है ) में एक सर्वेक्षण अनुबंध मिला। एक रात वह तिनसुखिया ट्रेन से गुवाहाटी से लौट रहा था। जल्दबाजी में लेट होने की वजह से वह टिकट नहीं ले पाये थे।  टीटीई ने उसे दीमापुर स्टेशन (नागालैंड)पर उतरने के लिए कहा, रात बहुत हो चुकी थी। यह नागालैंड का एक दस्यु क्षेत्र(बैंडिट एरिया) है। उसने नीचे उतर कर देखा कि वह प्लेटफ़ॉर्म पर एकमात्र यात्री था। वह बहुत डर गया परन्तु जब देखा की कुछ पुलिस वाले वह मजूद थे। रात का समय था भूख भी लग रही थी बाहर निकलना चाहा तो पुलिस ने वही रोक लिया उन्होंने अपने कार्यालय से बाहर नहीं आने की चेतावनी दी  बताया यह क्षेत्र रात के लिए मेहफ़ूज़ नहीं है फिर वह एक महिला पुलिस अधिकारी काफी दयालु थी। उसने नाश्ता पेश किया और उसे चाय भी दी जिससे कुछ राहत मिली।  फिर वह वहां तीन घंटे तक वह हाथ पकड़े बैठा रहा, फिर जब एक ट्रैन गुवाहाटी के लिए आयी उसने टिकट विंडो से टिकट ली और फिर ट्रैन में बैठ गया और वह गुवाहाटी पहुँच गया। 

2nd स्टोरी : -

 इस घटना के बाद उन्होंने एक स्थानीय युवा इलेक्ट्रीशियन को नियुक्त किया जो मदद के लिए स्थानीय क्षेत्र और भाषा की समस्याएं। इस बीच ही , उन्होंने क्षेत्रीय भाषा सीखना शुरू कर दिया। वह नया लड़का सभी समस्याओं से निपटने में सक्षम था। मरियानी स्टेशन ( जिला -जोरहाट , असम ) जोकि  काम करने के लिए सुविधाजनक था तो  शुरुआत वहां से की चूँकि  मैन सिटी  से आने जाने में समय लगता इसलिए हमने वही लॉज में एक कमरा किराए पर लिया। उस क्षेत्र के दो-तीन लोग उनसे मिले। वे मीठी ज़ुबान थी चैट-अप के दौरान, उन्होंने फिर हमारे बारे में जानकारी इकट्ठा की।फिर शाम को लगभग चार-पाँच लोग उसके पास आए। वे शायद माओवादी या मिलिटेंट्स समूह के सदस्य थे, उन्होंने रुपये की मांग की। फिरौती के रूप में एक लाख। हमने उनसे कहा कि वह एक गरीब आदमी है और दैनिक आधार पर काम कर रहा है। और हमने माओवादिओं/मिलिटेंट्स से कहा ओर उन्हें समझाने में कामयाब रहे कि अगले दिन हम अपने कंपनी के ओनर से बात करके आपको अवगत करते है फिर उन्होंने हमें धमकी दी और कही न जाने के लिए कहा। जैसे तैसे हमने अपनी रात काटी  अगले दिन ही सुबह होटल छोड़ दिया और रेलवे स्टेशन पहुंचे व  गुवाहाटी के लिए ट्रेन पकड़ें।

उसके बाद फिर चैन की साँस ली और फिर बहुत दिन बाद काम पर वही जाने तैयार हुआ पर उसके बाद ट्रेन से ही जाते और काम खत्म होने के बाद शाम होने के पहले ही ट्रेन से मेन सिटी लौटता और फिर कभी भी उस क्षेत्र में डेरा नहीं डाला।

भगवान का शुक्र है। हिंदी वाक्यांश "जान बची तो लाखो पाये "

कहने का मतलब बस इतना सा है अभी भी वहां बहुत सा डेवलपमेंट का कार्य बचा हुआ है पर इन माओवादियों /नक्सल एरिया में कोई काम नहीं करना चाहता। सरकार को चाहिए कि वहा ज्यादा से ज्यादा ध्यान दे , जिससे टूरिज्म और पिछड़े इलाकों में विकास तेज़ी से हो सकें।

इतना सब होने के बाद आज मैं अपने घर पर हु और जब भी ये घटना के बारे में सोचता हु रोंगटे खड़े हो जाते है परन्तु निच्छित ही वो पल मेरी जिंदगी के यादगार पल रहे है जिन्हे  कभी नहीं भुलाया जा सकता है। वो चाय के खेती , बागानों की महक , रेलवे लाइन के काम से रोज 15-20 कम पैदल चलना पड़ता था तो बहुत से प्राकृतिक दृश्य दिखायी देते थे और गैंडे जैसे दुर्लभ जानवर भी वह ऐसे ही दिख जाते है, थोड़ा बैकवर्ड एरिया है क्योकि वह रोजगार नहीं है लोग शिक्षित कम है जिससे ग्रामीण क्षेत्र में काम करने में परेशानी आती है। 

पर सच में एक बार आप जाकर जरूर देखिये असम की खूबसूरती। धन्यबाद।


गरीब,लावारिस व असहायों का मसीहा - मोक्ष संस्थापक श्री आशीष ठाकुर । (Part-01)

गरीब,लावारिस व असहाय लोगों का मसीहा - मोक्ष संस्थापक श्री आशीष ठाकुर । छू ले आसमां जमीन की तलाश ना कर , जी ले जिंदगी ख़ुशी की तलाश ना कर , ...