इंडिया का
नाम भारत ही क्यों मेलुहा या आर्यावर्त न
कर दें!
एक बार फिर
इंडिया का नाम बदलकर भारत करने की मांग की जा रही है ,
पर यह मांग कितनी उचित है ?
पिछले दिनों
सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में देश का नाम इंडिया से बदलकर भारत रखने की
मांग की गई। तर्क दिया गया कि भारत नाम से भारतीयों में राष्ट्रभक्ति और गर्व की
भावना बढ़ेगी। इसके समर्थन में किए गए अधिकांश ट्वीट्स में कहा गया कि इंडिया
अंग्रेजों का दिया हुआ नाम है, जबकि
भारत असली नाम है।
हम आज स्वतंत्र
राष्ट्र हैं, ऐसे में अपने इतिहास में जरूरी संशोधन
करने चाहिए, अपनी प्राचीन संस्कृति को पुनर्जीवित करना चाहिए
और औपनिवेशिक अतीत की याद दिलाती हर चीज को हटा देना चाहिए। यह साफ है कि
राष्ट्रवाद को खोजते हुए नए समय में प्रवेश कर रहे हैं। अब मेक इन इंडिया
को मेक इन भारत हो जाना चाहिए। और जो भी चीजें मेड इन भारत नहीं है उन्हें
खारिज कर देना चाहिए। संक्षेप में कहें तो यह वैश्वीकरण की खोज का अंत होगा और
महाशक्ति बनने के सपने का भी।
यह नया नहीं है।
इसी के लिए हमने ब्रिटिश काल की कुछ नावाब मूर्तियों हटा दी,
जिनमें काला घोड़ा में लंदन के मूर्तिकार सर जोसेफ बोहेम द्वारा
बनाई एडवर्ड सप्तम की मूर्ति भी शामिल थी।
हम भूल जाते है कि बॉम्बे को यह तोहफा इस शहर को बसाने में योगदान देने वाले ससून
परिवार ने दिया था। सर अल्बर्ट ससून बगदादी-यहूदी समुदाय के थे, जिन्होंने डॉ. भाऊ दाजी लाड म्यूजियम, द गेटवे ऑफ
इंडिया, द बैंक ऑफ इंडिया, मसिना
हॉस्पिटल और ससून डॉक बनवाए। मुंबई के काला घोड़ा स्थित डेबिड ससून पब्लिक लाइबेरी
भी उन्होंने ही बनवाई।
लेकिन अब महान लोगों के नाम पर महान संस्थाएं बनाने के बजाय हम मूर्तियां बना रहे हैं, जो अधिकांश दिवंगत नेताओं की होती हैं। मूर्तियों की तरफ देखो तो लगता है कि ये संदेहभरी नजरों से देख रही हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि आखिर क्यों इन मूर्तियों की जगह हम देश की महान कलात्मक परंपराओं, नायाब कृतियों को स्थापित नहीं कर सकते। इसका सबसे अच्छा उदाहरण देवीप्रसाद रायचौधरी की बनाई कलाकृति दांडी मार्च है, यह कृति इतिहास की महान घटना की साक्षी होने के साथ एक बहुत उत्कृष्ट कलाकृति भी है। मैं जितना प्रशंसक सरदार वल्लभ भाई पटेल का है, उतना शायद उनकी मूर्ति का नहीं हूँ। एक मूर्ति पर तीन हजार करोड़ रू. खर्च करना मेरी समझ से परे है।
ऐसा सिर्फ
मूर्तियों के साथ नहीं है। सड़कों का नाम बदलकर दिवंगत नेताओं के नाम पर रख देते
हैं। एक वक्त था जब नेहरू, इंदिरा और राजीव के नाम
पर हजार से ज्यादा योजनाएं, संस्थाएं, ट्रस्ट
थे। इसके लिए गांधी परिवार के चाटुकार जिम्मेदार थे। दुर्भाग्य से उन्हीं के
नक्शे-कदम पर चलने वालों ने इस परंपरा को भी आगे बढ़ाया। वे भी अब मूर्तियां बना
रहे हैं, सड़कों के नाम बदल रहे हैं, राजनीतिक
नायकों के नाम पर संस्थाएं बना रहे हैं। कई बार तो यह ज्यादा हो जाता है। मुंबई
में ही सुभाष चंद्र बोस के नाम पर दो मार्ग हैं। अगर खोजू तो शायद तीसरा भी मिल
जाए।
इन नेताओं की जगह
क्या हम अपनी कल-संस्कृति को बदल नहीं दे सकते? बरली
सीफ्रंट पर आरके लक्ष्मण के कॉमन मैन वाली
मूर्ति इसका अच्छा उदाहरण है। इस तरह की आर्ट लोगों को प्रेरित करने के साथ
पर्यटकों को भी आकर्षित करती है। ये कृतियां समय से परे होती हैं, लेकिन नेताओं के साथ ऐसा नहीं है। नेता आते-जाते रहते हैं, कई बार तो सवालों से भरी विरासत छोड़ जाते हैं। क्या हम मूर्तियों के बिना
नहीं रह सकते? बिल्कुल रह सकते हैं। आज की पीढ़ी तो इन
नेताओं को पहचानती तक नहीं और ना ही जानना चाहती है।
अब जो भी चीजें
मेड इन भारत नहीं है उन्हें खारिज कर देना चाहिए। संक्षेप में कहें तो यह
वैश्वीकरण की खोज का अंत होगा और महाशक्ति बनने के सपने का भी।
हम सड़कों का नाम
संगीत,
साहित्य, विज्ञान या कला की महान खोजों पर
क्यों नहीं रख सकते ? सोचें किसी सड़क का नाम कालिदास को
मेघदूत के नाम पर हो या फिर गीतांजलि रोड हो, जिस कृति ने
टैगोर को नोबेल दिलाया। या महात्मा गांधी को समर्पित रवि शंकर की राग 'मोहन कोन्स रोड' या संत तुकाराम की भक्ति कविता के
नाम पर अभंग रोड। मैं जहां रहता हूँ और जिनके नाम से वह मार्ग है, उन्हें जानने
के लिए मुझे गूगल
की मदद लेनी पड़ी। पता चला वह कोई आईसीएस अधिकारी थे,
जिन्हें नेहरू ने आरबीआई गवर्नर बनाया और बाद में वित्त मंत्री बने।
क्या वाकई ऐसे किसी शख्स के नाम के मार्ग की हमें जरूरत है? अधिकांश
भारतीय यही कहेंगे कि किसी आरबीआई गवर्नर को अपनी वादों में रखने से बेहतर है इन
कलाकृतियों को याद रखा जाए।
अब वापस आते हैं,
जहां से मैंने बात शुरू की थी। इंडिया या भारत? यह सवाल ही अजीब है। ऐसा है तो और पीछे जाकर क्यों न हम इसका नाम मेलुहा
या आर्यावर्त रख दें। लेकिन हमें तथ्यों
पर भी बात होनी चाहिए। इंडिया नाम अंग्रेजों ने नहीं दिया। यह सिंधु (इंडस) नदी से
लिया गया।
इस नाम का
इस्तेमाल हिरोडोटस के समय से ग्रीक और पर्शियन इतिहास में होता आ रहा है। यह पंचवी
सदी ईसा पूर्व की बात है। इंडिया आजाद हुआ था ना कि भारत। फिर भी अपनी अपनी सोच की
बात है हम तो इसे भारत माँ भी कहते है और हिन्दुस्तान भी इसलिए हिन्दुस्तान
जिंदाबाद के नारे भी लगते है। पर गौर करने वाली बात तो ये है भारतीय संविधान में
अपने देश के आधिकारिक नाम भारत या इंडिया के बारे में नहीं लिखा ऑन राइटिंग।
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