मोदी जी के सन्देश में सिर्फ माध्यम व् अभिजात वर्ग के लिए है , इसमें गरीबो के प्रति सहनुभूति क्यों नहीं ?
राजनीति की
हेडलाइन बदलने के मामले में मोदी सरकार के सामने कोई नहीं टिकता, खासकर
जिस शान से वह इसे अंजाम देते है ताजा
उदाहरण 'वंदे भारत मिशन है', जिसने
मायूसी के इस दौर में भी एक नई हलचल पैदा कर दी है। विदेश में नौकरी करने वाले हर
देश के नागरिक, छात्र, सैलानी और
परिवार दुनियाभर में फंसे हैं। अधिकतर ने उन्हें वापस लाने के लिए कुछ न कुछ
किया है। लेकिन, केवल भारत ने इसे आयोजन बनाया है।
अगर, आयोजन मोदी जी का है तो इसकी चर्चा भी होनी है और इसे
हैशटैग भी मिलने हैं। कई मंत्रालयों के हैंडलों से इसका जश्न मनाते ट्वीट भी आने
ही हैं। भाजपा का आईटी विभाग भी इसमें शामिल है और निश्चित ही टेलीविजन चैनल भी।
सरकार के करीबी चैनलों ने हर पल की खबरें देनी शुरू कर दी हैं। 781 भारतीय स्वदेश
लौटे तो ऐसा जश्न मनाया, मानो वे मुजफ्फराबाद या स्कार्दू को
आजाद कराकर लौटे हैं।
अगर आप सोचते हैं कि इतना काफी नहीं है, तो देश लिए लौटने वाले भारत मां के इन लालों के लिए शानदार होटलों में बने क्वारेंटीन सेंटर्स की कहानी हम दिनभर टीवी पर देख ही रहे हैं।
हमें याद दिलाया
जा रहा है कि वे इसके लिए पैसा दे रहे हैं। क्योंकि वे यह खर्च उठा सकते हैं। आखिर
वे खास लोगों के बच्चे हैं जो हर भारतीय नहीं हो
सकता। यह कुछ ऐसा है, जिस पर हम सभी को
खुश होना चाहिए। सरकार विदेश से लोगों को निकालकर ला रही है। आखिर ऐसा अविश्वसनीय
काम 1991 में अक्षय कुमार द्वारा अकेले ही कुवेत से लाखों लोगों को निकालने के बाद
पहली बार जो हो रहा है। सब एकजुट होकर
सावधान खड़े हो और 'वंदे भारत मिशन' के
जज्बे को सैल्यूट करें। और उन मामूली भारतीयों की चिंता न करें, जो पैरों में छाले और खाली पेट के साथ हजारा मील पैदल
चलकर घर जा रहे है ।
जिनके स्वागत के लिए काई नहीं खड़ा है , कोई ट्वीट नहीं कर रहा है । जिनके लिए क्वारटान केंद्र नहीं थे, 45 दिन तक बसें और ट्रेन भी नहीं थी, जबकि वे भी इसका खर्च उठाने के लिए तैयार रहे होंगे। वे समान नहीं हैं। अगर वे होशियार होते , अच्छे पढ़े-लिखे होते और अगर उनके माता-पिता आंधक पढ़े-लिखे होते तो ये कल निर्माण स्थला पर इट व बजरी नहीं ढो रहे होते।
अगर भगवान ने सभी
भारतीयों को एक जैसा नहीं बनाया है तो
भगवान से ही शिकायत कीजिए और तब तक इस महान राष्ट्रीय मिशन के लिए ताली बजाइए।
इसलिए इस बार का
लेख 'वंदे मातरम बनाम भारत के बन्दे' है हम ।
यहां एक सवाल खड़ा होता है, क्या नरेंद्र मोदी जी का असर कम हो रहा है? वे यहां तक पहुंचे ही नहीं हैं, बल्कि दो बार पूर्ण बहुमत हासिल किया है और पूरे विपक्ष को ध्वस्त कर दिया है तो ऐसा थोड़े ही है कि वह चतुर नहीं हैं। वह इंदिरा गांधी के बाद सबसे चतुर सबसे होशियार राजनेता हैं। उनकी राजनीतिक छवि तीन बातों पर टिकी है। पहली शानदार भाषण शैली और संदेश देने की ताकत, दूसरा व्यक्तित्व की आभा और निर्णय लेने की क्षमता और तीसरा आम भारतीय के साथ जुड़ जाने का ऐसा हुनर कि गरीब से गरीब भी खुद को उनसे जुड़ा महसूस करता है। वह याद दिलाते रहते हैं कि सत्ता जाने पर भी उन्हें तकलीफ नहीं होगी। वह झोला उठाएंगे और चले जाएंगे। 'फकीर' के पास खोने के लिए होता ही क्या है?
वह जानते हैं कि
असली वीआईपी गरीब व कामकाजी तबका होता है, शहरी
अभिजात या मध्य वर्ग नहीं क्योंकि, एक भारतीय राजनेता को खुद
तो चुनाव जीतना ही होता है, 300 दूसरे लोगों को भी चुनाव
जिताना होता है। मगर फिर कोरोना वायरस के दौर में उनके सभी संदेश मध्य वर्ग और
अमीरों के लिए क्यों हैं?
मोदी के नारे देखें- ताली, थाली, टॉच, लाइट।। बालकनी या बरामदे में आइए। लगता है कि छठे साल में मोदी की राजनीति इतनी भ्रमित हो गई है कि वह बालकनी वालों को ही असली भारत समझ रही है।आखिर भारत में कितने वोटर्स के पास बालकनी है? कितनों के पास घर है? कितनों के सिर पर न टपकने वाली छतें हैं?
करोड़ों लोग अपने
परिवार से सैकड़ा मील दूर रहते हैं,
बिना खिड़की की माचिस जैसी कोठरी में 14-14 लोग। लोगों के हुजूम
शुरू होने के करीब 50 दिन बाद भी कोई भी बड़ा नाम इन लाखों लोगों से सहानुभूति
जताने नहीं आया, माना इन लोगों का वजूद ही नहीं है। ये लोग अपना राज्य सरकारों के लिए
मसीबत हैं।
गरीबा का रातोरात अमीर नहीं बनाया जा सकता न ही लाखो लोगो को हवाई जहाज की सवारी कराई जा सकता हालाँकि , दर्द समझना भी कला होती है। इस समय उन लाखों लोगों की आवाज कौन बना है? काई उनका दुख बांट रहा है? सहारा दे रहा है?.
उत्तर प्रदेश,
छत्तीसगढ़ और झारखंड के मुख्यमंत्री ही कुछ कर रहे हैं। उनकी सियासी
समझ खत्म नहीं हुई है, वे हकीकत जानते हैं। लेकिन, यह मानना मुश्किल है कि मोदी जी भी जमीनी हकीकत समझ रहे हो।
ट्रेनें चलाना
जितना जरूरी उतना ही जोखिम भरा भी?
करीब 50
दिन बाद १२ मई 2020 से 15 जोड़ी ट्रेनें चलेंगी। मुख्यमंत्रियों को प्रधानमंत्री ने छूट सहित
लॉकडाउन जारी रखते हुए 'खेत से थाली तक' और 'फैक्ट्री से दुकान तक काम शुरू करने की सलाह दी।
विमान सेवा भी जल्द शुरू हो सकती है। तालाबंदीऔर इस दौरान करोड़ों लोगों को
भूख से बचाने वाले खर्च से राजस्व में कमी
आई है, लिहाजा राज्यों के दबाव में केंद्र ने शराब की
दुकानें खुलवा दी। अगर कोरोना रोगी बढे तो इन दो बड़े फैसलों की बड़ी भूमिका होगी।
लेकिन, ट्रेन चलाने का फैसला लोगों खासकर प्रवासी
मजदूरों को नया भरोसा देगा। संभव है कि
इससे पलायन रुके।सरकार के लिए यह कुआं और खाई के बीच चुनाव जैसा है।
उद्योग-व्यापार-यातायात शुरू करें तो इस संक्रामक बीमारी में लोगों को झोंकने का
डर और वह भी लंबे लाकडाउन की त्रासदी के बाद अगर न शुरू करें तो लोग रोजगार और
जरूरी सामान के अभाव में मरेंगे। उधर, तमाम औद्योगिक संघों
ने केंद्र व राज्य की सरकारों से श्रम कानून
के कडे प्रावधानों को फिलहाल खत्म करने की वकालत की और कुछ राज्यों ने उनके
दबाव में श्रमिकों से आठ घंटे की जगह 12 घंटे काम कराने की
अनुमति भी दी , जिसका श्रमिक संगठनों ने विरोध किया।
उद्यमियों के एक बड़े वर्ग ने (NPA) लिस्ट
में डालने की मांग इस आधार पर की कि वे
लंबे लॉकडाउन के इस दौर में से इस समय
भुगतान नहीं कर सकेंगे। इन सबके चलते सरकार को कुल १२ करोड़ का कर्ज लेना होगा और तब वित्तीय घाटा 5.5% पहुंचेगा।
इसका असर विदेशी निवेशकों के भारतीय
अर्थव्यवस्था की मजबूती पर विश्वास की कमी के रूप में होगा। बहरहाल, सरकार कुआ-खाई
संकट का समाधान परंपरागत सोच से निकलकर ही कर पायेगी है। घर पहुंचे प्रवासी मजदूरों
के लिए कृषि के अलावा कषि आधारित उद्यम जैसे खाद्य प्रसंस्करण, डेरी , मत्स्य, कुक्कुट,
शूकर पालन सरीखे व्यवसाय में मदद देकर इस श्रम शक्ति का अगले कुछ समय तक वाजिब इस्तेमाल किया जा सकता है। अर्थव्यवस्था के सभी तीनो क्षेत्रों
में केवल कृषि ही विकास दर दिखा रही हैं।
उम्मीद है कि अगले वर्ष भी कृषि क्षेत्र
बेहतर ही करेगा, जबकि अन्य दोनों सेक्टर नकारात्मक विकास दर की ओर है। ऐसे में
देश को आर्थिक संकट से बचाने के लिए कृषि और सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं को सहारा
देने की जरूरत है।
अब सचमुच कुछ
करने का वक्त आ गया है ;
बिल्ली की मूंछ
और कुत्ते की पूंछ का उपयोग क्या होता है, इस पर
वैज्ञानिक अभी भी शोध कर रहे हैं। अधिकांश की राय है बिल्ली रास्ता अपनी मूंछ से
तय करती है और कुत्ता अपनी वफादारी पूंछ
से दिखाता है। ये दोनों पालतू हैं,पर मूंछ और पूंछ से
भ्रम पैदा करते हैं। कोरोना के इस दौर में बहुत से लोग अपने-अपने ढंग से भ्रम पैदा
करेंगे।
कोई अपनी
जानकारियों से, कुछ अपने जान से तो कुछ अपने अधिकारों
से उन सबका दुरूपयोग करते हुए समाज का
भ्रम में डाल भयभीत करेंगे। अब उपदेश देने या सूनने का समय नहीं रहा। हमें स्वयं
को तय करना होगा कि जीवन की सुरक्षा के लिए किस सतर्कता, स्वच्छता
और समझ की जरूरत है। रावणों से बचिए।
मेघनाद के मरने
पर रावण ने अपने ही महल के लोगों को ज्ञान बांटा था, जिस
पर तुलसीदास जी ने लिखा- 'तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन
मंद कथा सुभ पावन।। पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे।।'
रावण ने उन लोगों को उपदेश दिया। वह स्वयं तो अधर्मी था, पर उसकी बातें शुभ और पवित्र थी । दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं, पर ऐसे लोग कम हैं जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हों। कम से कम आप तो तय कीजिए कि कोरोना से बचने के लिए कुछ बातें करते है तो उसे निभाएं भी। बातें करने, ज्ञान बांटने का समय बीत गया। संघर्ष के इस दौर में अब सचमुच कुछ करने का वक्त आ गया है।
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