दोस्तों आज हम बच्चो की हकलाने - तुतलाने की प्रक्रिया, समस्या और उसका घरेलु उपचार तथा बच्चो के जीवन में खिलौना का महत्त्व समझते है ; -
- हकलाना,स्पष्ट उच्चारण:-
इस उच्चारण की सहज यात्रा में लगभग 2.5 से 6 वर्ष की आयु के दौरान यह अवस्था आती है। जिसमें बालक के मन में बहुत से विचार आते हैं परंतु बेचारा अभिव्यक्ति में निर्धारित नहीं कर पाता कि पहले क्या बोले? इस प्रयास में एक शब्द का उच्चारण बार बार करता है, हकलाने लगता है। यह अक्सर वाक्य के प्रारंभिक शब्द में होता है, एक बार वाक्य शुरु हो जाने पर सामान्य लय प्राप्त कर लेता है। ऐसे में उसको हँसी का पात्र न बनाएँ, फिर से शब्दों को दोहराने को न कहें, बार बार रोकने टोकने से उसका आत्मविश्वास कम हो जाता है, गलती की संभावना बढ़ जाती है। ऐसा अनुभव हमें अपने साथ भी कई बार होता है, साक्षात्कार और मौखिक परीक्षा के दौरान पूछे गए प्रश्नों के उत्तर उन परिस्थितियों में जानते हुए भी नहीं बता पाते और बाहर आकर सहज में बता देते हैं।
स्टेज पर रटे रटाये भाषण की चार पंक्तियाँ बोलने में दिल की धड़कन तेज हो जाती है, बोल नहीं निकल पाते। इस पर एक छोटा सा उदाहरण है कि एक 100 पैर वाला कीड़ा आराम से चढ़ रहा था, जिससे दो पैर वाले ने पूछा, तुम्हारे सौ पैर हैं, कैसे चढ़ पाते हो? बेचारे ने अपने पैरों की तरफ देखा और गढ्ढे में गिर गया।
तात्पर्य यह है कि बच्चे को सहज रूप से प्रोत्साहित करें जिससे वह इस अवस्था को आसानी से पार कर जाता है।
शब्दों का सही उच्चारण भाषा को मिठास से भर देता है, भाषा सरस, कर्णप्रिय, मधुर हो जाती है। सबसे सामान्य त्रुटि 'श' और 'स' के उच्चारण में होती है। शक्कर को सक्कर, शादी को सादी उच्चारित करना, सुनने में कानों को चुभता है। सीटी बजाना, इसके सुधार का सरल उपाय है, जो बालक सीटी ठीक से बजा सकता है, वह श का उच्चारण आसानी से कर सकता है। इसके अलावा र को ल (राम को लाम, रस्सी को लस्सी)क्ष, त्र, ज्ञ, प्र, क्र जिनमें 2-3 व्यंजनों का मिश्रित उच्चारण होता है, कठिनाई होती है। इन उच्चारणों का सुधार करना अत्यत आवश्यक है, उसका उपहास न करें,आत्मबल प्रदान करें। बच्चे के साथ तोतली भाषा में न बोलें बल्कि इन शब्दों का जोर जोर से बार बार उच्चारण कराएँ जिससे सही भाषा कौशल का विकास हो, जैसे शास्त्रीय संगीतज्ञ वर्षों की साधना और तपस्या से आलाप के आयाम स्थापित करता है।
तात्पर्य यह है कि बच्चे को सहज रूप से प्रोत्साहित करें जिससे वह इस अवस्था को आसानी से पार कर जाता है।
शब्दों का सही उच्चारण भाषा को मिठास से भर देता है, भाषा सरस, कर्णप्रिय, मधुर हो जाती है। सबसे सामान्य त्रुटि 'श' और 'स' के उच्चारण में होती है। शक्कर को सक्कर, शादी को सादी उच्चारित करना, सुनने में कानों को चुभता है। सीटी बजाना, इसके सुधार का सरल उपाय है, जो बालक सीटी ठीक से बजा सकता है, वह श का उच्चारण आसानी से कर सकता है। इसके अलावा र को ल (राम को लाम, रस्सी को लस्सी)क्ष, त्र, ज्ञ, प्र, क्र जिनमें 2-3 व्यंजनों का मिश्रित उच्चारण होता है, कठिनाई होती है। इन उच्चारणों का सुधार करना अत्यत आवश्यक है, उसका उपहास न करें,आत्मबल प्रदान करें। बच्चे के साथ तोतली भाषा में न बोलें बल्कि इन शब्दों का जोर जोर से बार बार उच्चारण कराएँ जिससे सही भाषा कौशल का विकास हो, जैसे शास्त्रीय संगीतज्ञ वर्षों की साधना और तपस्या से आलाप के आयाम स्थापित करता है।
"इसके बाद भी वांछित परिणाम न मिलने पर स्पीच थेरापिस्ट से परामर्श आवश्यक है।"
बालक की जीवन यात्रा में भाषा सीखने का लगभग 6 वर्ष की आयु तक का समय अतिसंवेदनशील होता है, इस समय वह तेजी से नित्य नई कलाचें भरता सीखता है। इस समय सीखने की असीमित जिज्ञासा होती है, उसका ज्ञान पिपास मन अपने संपर्क में आने वाली हर वस्तु की जानकारी चाहता है, अनवरत अनूठे प्रश्न पूछता है, आकाश नीला क्यों है? चिड़िया कैसे उडती है? गाड़ी कैसे चलती है? फल सब्जी कैसे ऊगते हैं? सभी प्रश्नों के उत्तर अपने तर्क संगत सहज भाव से छोटे छोटे सरल सारगर्भित शब्दों में जरूर दें, उसे टालें नहीं, झकझोरें नहीं, यह कहकर न भगाएँ कि जाओ, अपना काम करो, दिमाग मत खाओ।
बालक की जीवन यात्रा में भाषा सीखने का लगभग 6 वर्ष की आयु तक का समय अतिसंवेदनशील होता है, इस समय वह तेजी से नित्य नई कलाचें भरता सीखता है। इस समय सीखने की असीमित जिज्ञासा होती है, उसका ज्ञान पिपास मन अपने संपर्क में आने वाली हर वस्तु की जानकारी चाहता है, अनवरत अनूठे प्रश्न पूछता है, आकाश नीला क्यों है? चिड़िया कैसे उडती है? गाड़ी कैसे चलती है? फल सब्जी कैसे ऊगते हैं? सभी प्रश्नों के उत्तर अपने तर्क संगत सहज भाव से छोटे छोटे सरल सारगर्भित शब्दों में जरूर दें, उसे टालें नहीं, झकझोरें नहीं, यह कहकर न भगाएँ कि जाओ, अपना काम करो, दिमाग मत खाओ।
इससे बालक का अपना अक्षय शब्द कोष विस्तृत होता है, शाब्दिक अभिव्यक्ति का विकास होता है, ज्ञानवर्धन होता है। इस समय वे कविता, आरती आसानी से याद कर लेते हैं, भले ही उसके अर्थ और व्याकरण से अनभिज्ञ रहते हैं। लगभग 6 वर्ष की आयु के बाद कोई भी भाषा अवश्य सीखी तो जा सकती है, लेकिन उसमें वह मौलिकता, सहजता, लय और मिठास नहीं आ पाती क्योंकि इसमें विचार भाव मातृभाषा में आते हैं फिर हम उनको दूसरी भाषा में अनुवादित करते हैं।
शायद इसी प्रसंगवश पुरातन काल में स्थानीय भाषाओं में वेद, पुराण, रामायण, महाभारत,गीता, गरुग्रंथ साहिब, कुरान, बाइबिल जसे महान ग्रंथों की रचनाएँ हई। 20 वीं शताब्दी के मध्य काल में हिन्दी साहित्य ने जो उडान भरी, आज कहीं दिखाई नहीं देती क्योंकि हमारे बच्चे अंग्रेजी माध्यम में पढने लगे तो हिन्दी उनको बनती नहीं और अग्रेजी उनको आती नहीं। इसलिए शायद पिछले 25-30 वर्षों में हिन्दी की कोई लेखनी अपना प्रभावशाली स्थान नहीं बना सकी।
हिन्दी साहित्य के इस स्तर की छवि आज फिल्मों के कथानक और गीतों में सहज रूप से जानी जा सकती है।
इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जिसने खिलौनों से न खेला हो। खेल खिलौने जीवन के अभिन्न अंग हैं, अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। जन्म के समय नवजात स्वयं परिवार का एक खिलौना है, फिर बड़ा होकर वह स्वयं खिलौनों की मांग करता है। खिलौनों की दुनिया खास है, रोचक और रोमांचक है। इनसे स्पर्श, स्मरण शक्ति, रंग रूप समझने का सामर्थ्य विकसित होता है, रचनात्मकता का विकास होता है।
नादान बच्चों को भी खामोश चीजें पसंद नहीं होती, रंगीन घूमते हुए जानदार खिलौने, हवा में उड़ता गुब्बारा, उछलती हुई गेंद बालक के सहज और सृजनात्मक विकास के वास्तविक दस्तावेज है। बच्चों के दौड़ते हुए लकड़ी के चके लगे घोड़े को रस्सी से खींचने और लकड़ी की 3 चके की गाड़ी को ढकेलने के दृश्य आज, भी हमारे स्मृति पटल पर स्पष्ट अंकित हैं।
हिन्दी साहित्य के इस स्तर की छवि आज फिल्मों के कथानक और गीतों में सहज रूप से जानी जा सकती है।
- खिलौनों की उपयोगिता :
इस दुनिया में शायद ही कोई ऐसा इंसान होगा जिसने खिलौनों से न खेला हो। खेल खिलौने जीवन के अभिन्न अंग हैं, अभिव्यक्ति का माध्यम हैं। जन्म के समय नवजात स्वयं परिवार का एक खिलौना है, फिर बड़ा होकर वह स्वयं खिलौनों की मांग करता है। खिलौनों की दुनिया खास है, रोचक और रोमांचक है। इनसे स्पर्श, स्मरण शक्ति, रंग रूप समझने का सामर्थ्य विकसित होता है, रचनात्मकता का विकास होता है।
नादान बच्चों को भी खामोश चीजें पसंद नहीं होती, रंगीन घूमते हुए जानदार खिलौने, हवा में उड़ता गुब्बारा, उछलती हुई गेंद बालक के सहज और सृजनात्मक विकास के वास्तविक दस्तावेज है। बच्चों के दौड़ते हुए लकड़ी के चके लगे घोड़े को रस्सी से खींचने और लकड़ी की 3 चके की गाड़ी को ढकेलने के दृश्य आज, भी हमारे स्मृति पटल पर स्पष्ट अंकित हैं।
गुजरते वक्त के साथ खिलौनों का प्रारूप बदला, पहले मिट्टी और लकडी, फिर रबर सास्टिक के चाबीदार खिलाने और अब बैटरी युक्त और इलेक्ट्रानिक खिलौनों का यग आ गया है।
खिलाने आकर्षक रंगों के हों, आसानी से धोए जा सकें, नोंकदार नहीं जिससे चोट न लगे, अत्याधिक महँगे न हों जिसे टूटने के भय से शिशु खेल ही न सके, हल्के हों जिससे चोट न लगे, भारी न हों कि खेल ही न पाए, बहुत छोटे भी न हो कि वह नाक, कान में फंसा ले। बहुधा बेटियों और उनकी गड़ियों का अनुपम निराला संसार रहता है, वे उन्हें नहलाती धुलाती, कपड़े पहनाती, सुलाती हैं, खिलौनों के रसोईघर से बाकायदा खाना बनाकर खिलाती हैं, शिक्षिका बनकर पढ़ाती हैं, यदा कदा डॉटती भी हैं ।
उसके पुराने बदरंग खिलौनों को कभी न फेकें, वे उसके सजीव पात्र हैं, उनसे उसका भावनात्मक लगाव रहता है।
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