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बच्चो की भाषा का विकास |
भाषा शब्दों में विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम है । मानव मात्र को यह शक्ति प्राप्त है कि वह अपने विचारों और अवलोकनों को लिपिबद्ध कर इस अमानत को अपनी आने वाली पीढ़ी को उपहार स्वरूप देता है जिससे वे लाभान्वित होते हैं। यह क्रम उत्तरोत्तर चलता रहता है। हिन्दी वर्णमाला का यह अमूल्य तोहफा निश्चय ही किसी महान विद्वान की देन है, जिसमें प्रत्येक उच्चारण को लिपिबद्ध किया गया है। व्यंजन समूहों के उच्चारण का नाद संबंध मुँह के विभिन्न हिस्सों से है, जैसे प फ ब भ म-होठों से प्रतिपादित हैं, त थ द ध न-जीभ दाँतों से टकराकर उच्चारित हैं, च छ ज झ - जीभ के संकुचन से उत्पन्न होते हैं, क ख ग घ - गले के भीतरी भाग से स्वरित हैं। अत: मांसपेशियों के असंतुलन से पूरे व्यजन समूह का उच्चारण प्रभावित होता है। क्ष त्र ज्ञ सबसे पृथक हैं, ष स श को अलग वर्गीकृत किया गया है। स्वरों में अ,आ से अ:तक लिपिबद्ध हैं, इससे लेखनी सहज और स्पष्ट है।
भाषा विकास में श्रवण शक्ति का विशेष महत्त्व है। शिशु की आरंभिक अवस्था में श्रवण क्षमता की जानकारी आवाज से एकदम सहमना, साँस की गति एकदम तेज होना या रुकना, पलक झपकना, आवाज की दिशा में सिर घमाना, से प्राप्त की जा सकती है। संगीत की झंकार, लयबद्ध सरगम और स्वरलहरी, पूजापाठ में घंटियों की पवित्र तरंगें और धुनें, शंखनाद के उद्घोष की गूंज, दादी माँ की प्यार भरी लोरी की गनगनाहट के स्वर मन को सहज प्रसन्न करते हैं। गीत सुनकर शिशु लगातार देखता है, असीमित आनंद में खो जाता है और प्यार भरी थपकी का स्पर्श पाकर मंत्रमुग्ध होकर सो जाता है।
गीत, सुरों की लय एक जीवंत ललित कला है जो हमारे मन के अंतरतम भावों को अत्यंत मनोहारी ढंग अभिव्यक्त करती है और अंतर्मन को शांति, सुकून प्रदान करती है।
नवजात शिशु प्रारंभिक दिनों में नींद में अपने आप मुस्कुराता है, हमको टुकुर टुकुर देखता है, वह संसार के बारे में न जाने क्या सोचता है? लेकिन 4-6 सप्ताह की आयु में शिशु मुख मुद्राओं से "पिता से संबंध स्थापित करता है और मुस्कुराता है। यह इस बात की पहली जानकारी है कि वह का पहचानता है।६ माह से बार बार ऊ, ऊ लय करता है, वह हमारे हूंहूं कहने का उत्तर हूहूं में देता है।
नवजात शिशु प्रारंभिक दिनों में नींद में अपने आप मुस्कुराता है, हमको टुकुर टुकुर देखता है, वह संसार के बारे में न जाने क्या सोचता है? लेकिन 4-6 सप्ताह की आयु में शिशु मुख मुद्राओं से "पिता से संबंध स्थापित करता है और मुस्कुराता है। यह इस बात की पहली जानकारी है कि वह का पहचानता है।६ माह से बार बार ऊ, ऊ लय करता है, वह हमारे हूंहूं कहने का उत्तर हूहूं में देता है।
हमारा मानस खुशी से पल्लवित हो उठता है। बहुत सारे उच्चारणों में मा उच्चारित होने पर माँ, पा बोलने पर पापा, चा कहने पर चाचा, दा कहने पर दादा,बु कहने पर बुआ को ऐसा महसूस होता है कि शिशु ने उनको पुकारा है और वे खुशी से झूमकर उसे गोद में उठा लेते हैं। वह समझ जाता है कि इस व्यक्ति की उपस्थिति में उच्चारित करने से विशेष स्नेह मिलता है, आखिर इस स्वार्थपरस्त दुनिया में प्रेम का अभिलाषी कौन नहीं है? इसी प्रकार मम कहने से पानी, हप्पा उच्चारित करने से खाने का इंतजाम हो जाता है। इस विकास की गति को बनाए रखने में माता पिता, अभिभावकों का विशेष योगदान है क्योंकि बालक को इस दिशा में वाणी का प्रत्येक उच्चारण लाभदायक होता है। अतः इस विकास के लिए दूध पिलाते, मालिश, नहलाते, खिलाते समय हर वक्त बच्चे से बातें करें, इस समय दादा दादी, नाना नानी का योगदान असीमित हो सकता है। फल, पक्षी, जानवरों और रंगीन चित्रों की कहानियों की किताबों द्वारा भाषा के ज्ञान को जल्द स्वरूप दिया जा सकता है जिससे बालक का अपना शब्दकोष वृहद् हो जाता है।
भाषा के उच्चारण का विकास अनुसरण वृत्ति से होता है। अतः इस वृत्ति के अनुरूप नर्सरी और प्रारंभिक कक्षाओं में शिक्षिकाओं का विशेष योगदान है क्योंकि महिलाओं के उच्चारण स्पष्ट और मधुर होते हैं। इसी उच्चारण के लहजे से स्थान की जानकारी हो जाती है। बिहार, बंगाल, पंजाब, दक्षिण भारत सभी प्रांतों की लय अलग अलग है, भारतीय मूल के विदेशों में जन्मे बालक वहाँ के लहजे में भाषा उच्चारित करते हैं। इस उच्चारण की गति भिन्न हो सकती है। सामान्यतः शिशु-6 माह की आयु में मा, पा, दा बोलना शुरु कर देता है, फिर दिन प्रतिदिन नए नए छोटे छोटे शब्दों का उच्चारण करने लगता है,2 वर्ष तक 2शब्दों के और 3 वर्ष तक 3 शब्दों के अर्थपूर्ण वाक्य बोलने लगता है। बालक 3 वर्ष की आयु में सामान्य जरूरतें बताने लगता है, इसलिए नर्सरी में दाखिले की उम्र 3 वर्ष निर्धारित है।
इस आयु में 7-8 शब्दों के स्पष्ट वाक्य बोलना बालक की अतिबुद्धिमत्ता का निश्चित संकेत है। कभी कभी 2.5 वर्ष की आयु तक बच्चा समझ तो बहुत कुछ जाता है लेकिन वाणी का रूप नहीं दे पाता, शरीर के अंगों नाक, कान, मुँह को इशारे से बताता है, लाइट, पंखा सब बताता है। उसे कहने पर पानी लाओ, तब वह पहले जाकर गिलास उठाता है, पानी निकालता है और नन्हे नन्हे हाथों से हमें लाकर देता है यानी वह 3 क्रियाओं का क्रियान्वन एक वाक्य सुनकर करता है। इसी प्रकार केवल कहने पर कि घूमने चलना है, अपने जूते लाता है, आपके जूते लाता है, आलमारी की ओर इशारा करता है कि बाहर जाने के लिए अच्छे कपड़े पहनाओ, गाड़ी की चाबी की ओर इशारा करता है। यदि बालक 3 वर्ष की आयु तक भली प्रकार उच्चारण न करे तब चिकित्सकीय परीक्षण आवश्यक है।
दीवारों पर लिखी वर्णमाला, गिनती और बोलते रेखाचित्र इस बात का प्रमाण है कि घर में पूर्व प्राथमिक शाला का बालक है,यह उसका सहज स्वभाव है। बच्चों की तोतली भाषा स्वरसरिता की सुरमयी गीतांजलि है, वे अपने अर्थरहित उच्चारणों से वातावरण से सदा संपर्क में रहते हैं लेकिन खेद है कि तरंगित भावों की यह दिव्य निर्झरणी स्वार्थी, अहंकारी मनुष्यों की तर्कभरी दुनिया में ज्यादा समय तक टिक नहीं पाती। बड़े बड़े ज्ञानी और भाषा मर्मज्ञ भी बालक की बातों में व्याकरण की गलतियाँ नहीं ढूँढ़ते बल्कि उसके अनुरूप तोतली भाषा बोलने का असफल प्रयत्न करते हैं, लेकिन जैसे ही वह व्याकरण सम्मत भाषा बोलता है, भाषा की मिठास घटने लगती है।
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