दोस्तों माँ की महिमा के बारे में तो सब ने पढ़ा है पर थोड़ा पापा / पिता का दिल भी जान लीजिये :-
पिता की भूमिका :-
पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है। हमारे बचपन में पिताजी की भूमिका धौंस से चलने
वाले प्रेम के प्रशासन की थी, उनका प्यार कड़वा, खट्टा और खारा था, हम उनकी परछाई से भी डरते थे, हर आवश्यकता की पूर्ति के लिए माँ ही एक सहारा थी। हमने छोटी मोटी परेशानियों में माँ को जरूर पुकारा लेकिन बड़ी विपदा आने पर 'बाप रे ही उच्चारित हुआ। उनके इस कठोर व्यवहार की महत्ता हम तभी समझे, जब खुद पिता बने।
आज एकल परिवारों के दौर में, कार्यरत माता पिता के परिप्रेक्ष्य में
पिता की भूमिका में परिवर्तन हुआ है।
आज से लगभग 20 वर्ष पहले जब शिशु टेबिल पर पेशाब कर देता था तब माँ स्वयं जाकर
अपने कपड़ा से पोंछ देती थी, 10 वर्ष बाद उसने पिता की ओर देखना शुरु किया तब
पिता कपड़ा ले आता है, माँ पोंछ देती है ।
आज बच्चे के साथ पिता की भूमिका दोस्त की तरह है। बालक रोकर माँ की
बजाय पापा
पुकारने लगा है लेकिन फिर भी पिता का संवेदनशील, अनंत प्यार अदृश्य और अप्रदर्शित है । वह अपनी इच्छाओं के हनन और परिवार की पूर्ति में लगा रहता है। पिता न तो अपने बच्चे की नौकरी लगने पर उसके आत्म संपन्न होने की खुशी का इजहार कर पाता है और न ही उसकी 'दूरदराज की नौकरी पर घर छोड़ने का गम जाहिर कर पाता है।'
पुकारने लगा है लेकिन फिर भी पिता का संवेदनशील, अनंत प्यार अदृश्य और अप्रदर्शित है । वह अपनी इच्छाओं के हनन और परिवार की पूर्ति में लगा रहता है। पिता न तो अपने बच्चे की नौकरी लगने पर उसके आत्म संपन्न होने की खुशी का इजहार कर पाता है और न ही उसकी 'दूरदराज की नौकरी पर घर छोड़ने का गम जाहिर कर पाता है।'
इस समय माँ जरूर आंसू गिराकर
मन हल्का कर लेती है लेकिन सामाजिक दायरे में बंधा पिता मन ही मन
रोता है, अंदर ही अंदर घुटता है, आंसू नहीं गिरा पाता। सदैव
गंभीर, तटस्थ और शांत सा दिखने वाला पिता अपनी बिटिया की शादी के बाद उसकी
विदाई की बेला में फूट फूट कर रोता है, उसे भी रोने का हक है, आखिर वह भी एक इंसान है।
अब पिता जी के बाद माँ के बारे में नहीं पढ़ा तो माँ नाराज़ हो जाएगी इसलिए कुछ शब्द माँ नाम :-
माँ की महिमा :-
बालक के लालन पालन में माँ और पिता की भूमिका एक गाड़ी के 2 पहियों के समान है।
माँ।
अस्तित्व का तत्त्व है। मनुष्य, गाय, बकरी, बिल्ली सभी में उच्चारण का उद्भव 'म' से होता है। माँ
हमारी प्रथम शिक्षिका है. वह मानव जीवन उत्थान की प्रेरणा स्रोत है। प्रकृति ने मातृत्व की यह सौगात नारी को ही प्रदान की है क्योंकि वह भी उसकी कोमलता, धीरज, त्याग और सहनशीलता से वाकिफ है।
अस्तित्व का तत्त्व है। मनुष्य, गाय, बकरी, बिल्ली सभी में उच्चारण का उद्भव 'म' से होता है। माँ
हमारी प्रथम शिक्षिका है. वह मानव जीवन उत्थान की प्रेरणा स्रोत है। प्रकृति ने मातृत्व की यह सौगात नारी को ही प्रदान की है क्योंकि वह भी उसकी कोमलता, धीरज, त्याग और सहनशीलता से वाकिफ है।
माँ के आंचल की स्नेहमयी छाया और पल्ल पकड़कर चलते चलते बनती डगर में सभी समस्याओं का समाधान है, सारी उम्र माँ ताकत बनकर साथ चलती है। सभी महापुरुषों के जीवन पर उनकी माताओं के उज्जवल चरित्र की स्पष्ट छाप अंकित है। अनेक विचारको ने माँ की महिमा की व्याख्या की, लेकिन सभी भावनाएँ शब्दों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, कुछ अधूरा रह जाता है, कुछ छूट ही जाता है। माँ की महिमा असीमित है, अपरंपार है, अलौकिक है।
उसको नहीं देखा हमने कभी, पर उसकी जरूरत क्या होगी?
“ऐ माँ तेरी सूरत से अलग,
भगवान की सूरत क्या होगी?”(इंदीवर)
माँ ममता का अथाह सागर है। वह कुछ क्षण को गुस्सा हो सकती है लेकिन
ज्यादा समय के लिए। कभी नाराज नहीं होती, प्यार करना उसका उसूल है। उसका
वात्सल्य असीमित है। यदि हमारी किस्मत लिखने की जिम्मेदारी माँ को मिलती तो
यकीनन कोई गम, कष्ट हमारे हिस्से में न आता।
हर माँ को उसका बच्चा दुबला ही जान पड़ता है, शायद यह उसका प्राकृतिक स्वभाव है। माँ
जब अपने मायके जाती है तब उसकी माँ भी उसे देखते ही
अनायास कह उठती है कि अरे कितनी दुबली हो गई! तेरे लिए
रसोई घर में किनारे वाले डिब्बे में घी
मेवे के लड्डू रखे हैं, सुबह शाम खा लिया करो। बेटा चाहे 4 वर्ष
का हो या 40 वर्ष का, हर माँ अपने बच्चे के खाने का ख्याल
रखती है, फिक्र करती है और हमेशा उसे
भूख से एक रोटी ज्यादा खिलाने की
अभिलाषा रहती है।
शायद ही ऐसी कोई माँ होगी जो खाना लेकर
बच्चों के पीछे न दौड़ी हो। वह बेचारी
बार बार पूछती है, कुछ तो खा लो। उसने रात 10 बजे चूल्हा
जलाकर गरम गरम रोटी खिलाई लेकिन उसके
लिए तारीफ का एक शब्द न निकला, बल्कि नखरे दिखाए।
आज पत्नी का साम्राज्य है, सिर झुकाकर खाते हैं और तारीफ भी करते हैं।
विज्ञापन का मायाजाल :-
आजकल विज्ञापन के युग में सुबह से लेकर रात तक हमारे जीवन के हर पल, हर पहलू का
उत्पादक कंपनियों ने घेर रखा है, इनमें स्वास्थ्य और सौंदर्य के विज्ञापन सब मिथ्या हैं, भावनाओं का ब्लैकमेल हैं। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि यदि 5 रुपये में सुंदरता हासिल की जा सकती है तो पाँच रुपये किसकी जेब में नहीं हैं? त्वचा का रंग उसमें उपस्थित रंग बनाने वाली कोशिकाओं (मेलेनोसाइटस) की संख्या पर निर्भर करता है, इस संख्या को घटाने बढाने के लिए कोई क्रीम, तेल, पाउडर उपलब्ध नहीं है। ऐसा तेल, शेपू लगाने से बाल लंबे, मजबूत होते हैं, शहर में धड़ल्ले से कितना तेल, शैंपू बिक रहा है लेकिन वैसे काले, घने, चमकदार, छलछलाते बाल किसी के नहीं हैं।
नीग्रो
समुदाय के काले, घने, घुघराले बाल कुदरती हैं। आखिर विज्ञापन का यही मतलब है कि जिस चीज की
आपको जरूरत नहीं है, उसे खरीदें।
इनकी चकाचौंध परोक्ष रूप से मन को प्रभावित करती है, वही बात।बार बार दोहराई जाती है जिससे
वह झूठ भी सच सा जान पड़ता है और हम खुद ही या पड़ोसियों, मित्रों, रिश्तेदारों के दबाव में उस ओर आकर्षित हो जाते हैं, मगमरीचिका में फँस जाते हैं, भ्रमित हो
जाते हैं जबकि इस हकीकत से सभी वाकिफ
हैं कि अकल और शकल बाजार में उपलब्ध नहीं है।
यह शरीर हमें कुदरत की नायाब सौगात है, इसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करें, सहर्ष स्वीकारें।
आप जिस भी तथाकथित सेहत बनाने वाले उत्पाद से प्रभावित हैं, उसके डिब्बे पर लिखी
संरचना का विश्लेषण करें कि उसमें कौन सी ऐसी विशेष चीज है जो घर में नहीं रखी है यानी जो पोषक तत्त्व हैं, वे सभी दाल, चावल, सब्जी, रोटी, दूध, मेवे और मौसम के ताजे फलों में मौजूद हैं, इनके सेवन से ही सभी स्वस्थ रह सकते हैं।
आप जिस भी तथाकथित सेहत बनाने वाले उत्पाद से प्रभावित हैं, उसके डिब्बे पर लिखी
संरचना का विश्लेषण करें कि उसमें कौन सी ऐसी विशेष चीज है जो घर में नहीं रखी है यानी जो पोषक तत्त्व हैं, वे सभी दाल, चावल, सब्जी, रोटी, दूध, मेवे और मौसम के ताजे फलों में मौजूद हैं, इनके सेवन से ही सभी स्वस्थ रह सकते हैं।
पौष्टिक भोजन का कोई विकल्प नहीं है। इस तथ्य का प्रमाण
हमारे रिश्तेदार माँ, पिता, चाचा, मामा, मौसी हैं जो कि शायद आज की तारीख में भी शायद हमसे
दमदार हैं, उन्होंने कभी इन डिब्बा बंद भोज्य
पदार्थों का सेवन नहीं किया।
आज से लगभग 50 वर्ष
पहले जब चाचा, बुआ की शादी हुई, तब कोई होटलें नहीं थी,खाना बनाने वाले उपलब्ध नहीं थे, तब
दादी और उनकी चार देवरानी जेठानी ने
मिलकर 300 लोगों को खुशी से, दिल से, जी भर के
खिलाया और गर्व का अनुभव किया। उस वक्त
हमारे जैसे खाने वाले नहीं थे कि केवल 2-4 पुड़ी में पेट भर
जाए, बाकायदा पंगत का इंतजार रहता था।
आज हमारी सोच में आमूल
परिवर्तन हुआ है जिसमें हम अपने एक जिगरी दोस्त को, जिसके साथ हमने अपने छात्र जीवन के कई
यादगार वर्ष गुजारे हैं, उसे
भी खाना घर के बजाय होटल में खिलाने की
अभिलाषा रखते हैं।
जीवन का तात्पर्य / महत्त्व :-
जिस दिन से चला हूँ, मंजिल पर नजर है,
रास्ते में बाधाएँ और तूफान मिले,
लेकिन कभी मील का पत्थर नहीं देखा।
अत्याधिक कार्य करने की धुन, अतिशय धनलिप्सा और अनियंत्रित उपभोग की आधुनिक
जीवन शैली ने हमारे लिए सुविधाओं का अंबार लगा दिया है। भौतिक सफलता निश्चित रूप से
आवश्यक है, लेकिन मंजिल पर पहुँचकर यदि अपने न दिखाई दें तो ऊँचाईयां शायद किसी काम की नहीं है। आजकल भागदौड़, उहापोह और रोबोटनुमा जीवन में 'न सुकून है, न जिंदगी, न अपनापन है ।
जीवन की सार्थकता में बच्चों के साथ
खेलना, प्राकृतिक सुषमा में रमना,परिवारजनों के साथ बतियाना, हँसना, खिलखिलाना, मित्रों के साथ पुलिया पर बैठकर गप्पें
मारना, ठहाके लगाना अति आवश्यक है, यह अर्थसाध्य नहीं है ।
"आत्म संतोष,
आंतरिक शांति और खुशी पैसे
नहीं खरीदी जा सकती है, पैसा हर खुशी का पर्याय नहीं है। आपकी
खुशियों की तिजोरी की चाबी आपके हाथ है, इसे बंद न करें, सदैव खुली रखें।"
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