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Baby need mom dad Hand-we care for u |
आज यहाँ है आपके बच्चो से सम्बन्धित सब सवाल के जवाब :-
1. बच्चा ठीक से खाता नहीं ?
2. दवाई खाने के बाद पेशाब का रंग पीला हो जाना ?
3. टानिकों को लेकर भ्रम !
4. बच्चो की वजन एवं लंबाई ठीक से नहीं बढ़ाना ?
5. बच्चो की आत्मनिर्भरता l
आजकल सभी माता पिता बच्चों को खिलाने, सेहत और शारीरिक वृद्धि को लेकर चिंताग्रस्त रहते हैं। उनको अक्सर यह लगता है कि बच्चा ठीक से खाता नहीं है। वे जब डॉक्टर के क्लिनिक जाते है ,पहले से मन बनाकर आते हैं और बालक के लिए भूख की दवा, टानिक और सेहत बनाने वाले पाउडर का जिक्र की करते है,जरुरत महसूस करते हैं, आजकल इलाज भी फरमाइशी हो गया है। सभी भली भांति जानते हैं कि शरीर को ऊर्जा काबोहाइड्रेड, वसा और प्रोटीन के चय, अपचय से प्राप्त होती है।
टानिक के नाम पर जो चीज़ बाजार में उपलब्ध है, वे केवल विटामिन और मिनरल हैं जो केवल प्रेरक का काम करते हैं,ऊर्जा प्रदान नहीं करता इनकी आवश्यकता तभी है, जब शरीर में इनकी कमी हो, यदि कमी नहीं है तो व्यर्थ है। सभी ने महसूस किया है कि विटामिन बी समह की एक गोली खाने के बाद अगले ही दिन पेशाब का रंग पीला हो जाता है यानी जो भी चीज शरीर को जरूरी नहीं है, बाहर निकल जाती है, भले हमने टानिक समझकर ली है। "आखिर गाड़ी में पेट्रोल की टंकी भरी होने पर भी पेट्रोल भरेंगे तो वह जमीन पर गिरेगा।"
फिर भी माता पिता की इच्छा रहती है कि कोई ऐसी चीज या टानिक मिल जाए जिससे सारी जरूरत पूरी हो जाएं। यदि टानिक की शीशियों का विश्लेषण करें तो लगभग सभी पर फलों के चित्र अंकित हैं, ताजे फल खिलाने से डरते हैं और टानिक पिलाने में फक्र और शांति महसूस करते हैं।
फिर भी माता पिता की इच्छा रहती है कि कोई ऐसी चीज या टानिक मिल जाए जिससे सारी जरूरत पूरी हो जाएं। यदि टानिक की शीशियों का विश्लेषण करें तो लगभग सभी पर फलों के चित्र अंकित हैं, ताजे फल खिलाने से डरते हैं और टानिक पिलाने में फक्र और शांति महसूस करते हैं।
यदि टानिक से वास्तव में किसी की सेहत बनती तो इस दुनिया का सबसे बड़ा पहलवान डाक्टर खुद होता, किसी और को खिलाने से पहले खुद खाता।ऑलंपिक प्रतियोगिताओं में ताकत से संबंधित सारे स्वर्णपदकों के हकदार डाक्टर और टानिक बनाने वाली कंपनियों के लोग ही होते। घरों में रसोईघर बनाने की आवश्यकता नहीं होती, होटलों का काम समाप्त हो जाता, किसान भी खेतों में मेहनत न करते, वे गरमी में धूप नहीं देखते, ठंड में ठंड नहीं देखते, बरसात में पानी नहीं देखते, अनवरत खेतों में लगे रहते हैं।
सब जगह टानिकों के उत्पादन हेतु कारखाने लगाते, थाली भर खाना खाने की जरूरत न होती केवल दो चम्मच पीने से सारा काम हो जाता। यह हम आपको नई बात नहीं बता रहे हैं, सभी को संतुलित आहार और उसमें विद्यमान पोषक तत्त्वों की समुचित जानकारी है।
अक्सर माता पिता को लगता है वजन एवं लंबाई ठीक से नहीं बढ़ रही है, कुछ करना चाहिए, जबकि यह सर्वविदित है कि शारीरिक लंबाई बढ़ाने की कोई दवा नहीं है, यह अनुवाशिक होती है। फिर भी किसी पडोसीया रिश्तेदार के हम उम्र बच्चे से तुलना करते है कि इससे छोटा है, इससे लंबा है, मोटा है, तब भल जाते हैं कि हम एक ही माता पिता से 2-4 भाई बहिन है लेकिन सबके डील डोल पथक हैं तो अलग अलग माता पिता से बच्चे स्वाभाविक रूप से भिन्न होगे।
जहाँ तक तुलना का संबंध है. सभी जानते हैं कि जुड़वाँ बच्चे जो एक साथ पैदा होते हैं, एक ही गंज से दूध पीते हैं, एक थाली में खाना खाते हैं एक ही वातावरण में पलते हैं, तब भी शरीर, विचार, व्यवहार में भिन्न होते हैं। इस दुनिया में सृष्टि के निर्माता ने इतने सारे पुतले बनाए परंतु आज तक दो व्यक्ति एक से नहीं बने। अत: इस तुलनात्मक सोच से बचें।
माता पिता को कभी कभी ऐसा महसूस होता है कि बच्चा खाता तो ठीक ही है लेकिन वजन नहीं बढ रहा है, लंबाई अनुसार वजन नहीं बढ़ रहा है, दुबला है, कमजोर है।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि दुबले और कमजोर की परिभाषा अलग अलग है। बच्चा जो सुबह 6 बजे उठता है और रात 10 बजे तक नहीं सोता, लगातार चलता है, बार बार सीढ़ी चढता, उतरता है, एक कमरे से दूसरे कमरे दोड़ कर जाता है, पलंग पर चढ़कर कूदता है, खिड़की से कूद जाता है, दिन भर जब तक जागता है, कुछ न कुछ करता रहता है, एक पल की फुरसत नहीं है। जब वह सोता है, तभी स्थिर रहता है।
चंचलता हर बच्चे का कुदरती स्वभाव है। यह हम तभी समझ सकते हैं जब हम उसके साथ केवल 15 मिनिट दौडें, जैसा वह करता है, स्वयं करें और महसूस करें कि दुबला वह है और कमजोर हम हैं। सभी जानते हैं कि शरीर के प्रत्येक कार्यकलाप में ऊर्जा की आवश्यकता होती है यानी वह जितना खाता है, सारा ऊधम करने में खर्च हो जाता है, इसलिए वजन नहीं बढ़ पाता है।
यह बात तथ्यात्मक है कि उम्र के अनुसार लंबाई और वजन होता है। लंबाई के अनुसार वजन का निश्चित मापदंड है लेकिन "ताकत और स्फूर्ति की वजन से ज्यादा अहमियत है।" सभी ने टीवी पर लंबी दौड़ (मैराथन) दौड़ने वाले देखे हैं, एकदम दुबले पतले और पिचके गाल, लेकिन स्वर्ण पदक के वे ही हकदार हैं। हम देखने में जरूर ठीक ठाक दिखते हैं लेकिन थोड़ा सा दौड़ने में ही थक जाते हैं और उनमें दौड़ के अंत तक आते आते एकत्रित नवीन ऊर्जा का संचार होता है, और तेजी से दौड़ने लगते हैं।
जिसको भी स्वर्ण पदक मिलता है, वह उस विधा का सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी है, उससे अच्छा शख्स इस
दुनिया में नहीं है, "यदि हम उसको लंबाई के अनुसार वजन के ग्राफ में समायोजित करें तो ग्राफ को तो भूल ही जाएँ, वह बेस लाइन के नीचे रहता है" लेकिन स्वर्णपदक उसी के गले में रहता है। अत: "आपको को चलती हुई कार चाहिए या खड़ा हुआ ट्रक", स्वाभाविक रूप से चलती हुई कार ही सबकी ख्वाईश है।
अतएव निष्कर्ष यह है कि वजन को लेकर परेशान न हों। यह ईश्वर की हम पर असीम कृपा है कि हम अपनी मर्जी अनुसार जैसा चाहते हैं, वैसा खाते हैं, पहनते हैं, रहते हैं, बहुत सारी हमारी महत्त्वाकांक्षाएँ नहीं हैं लेकिन सामान्य रूप से हमारी गाड़ी आराम से चल रही है। हम अपनी जानकारी से, चिकित्सकों और पोषण विशेषज्ञों की सलाह से संतुलित आहार को समायोजित करते हैं लेकिन मेहनत का कोई काम नहीं कर पाते।
इसके विपरीत दैनिक वेतन भोगी मजदूर जिसके पास दो वक्त का भरपेट भोजन नहीं है, दूध, फल, मेवे तो उनके खाव में भी नहीं है।लेकिन मेहनत का काम वे ही करते हैं, गर्मी की तेज चिलचिलाती धूप जिसमें हम खड़े नहीं हो सकते, वे खडे ही नहीं रहते बल्कि एक तरफ से दूसरी तरफ तक गड्डे भी खोदते हैं, मुरम का पूरा ट्रक 3 घंटे में । बाहर से भीतर पलटा देते हैं और बेहतरीन कर्मठ, बलिष्ठ, सुगठित शरीर के मालिक हैं।
तात्पर्य यह है कि प्रकृति ने यह ऐसी मशीन बनाई है कि जैसी समायोजित करेंगे, वैसी रहेगी।
हमारा आशियाना - बच्चो की आत्मनिर्भरता :
हमारे घर में हर चीज का निर्धारित स्थान है। स्वयं के लिए, खाने के लिए, मेहमान को बैठाने के लिए, लेकिन नादान (छोटे बच्चे) की कोई सुनवाई नहीं है। वह जहाँ जाता है, वहीं नाराजगी। उसकी हर प्रक्रिया शैतानी समझी जाती है, उसे हर जगह से भगाया जाता है, ऊधम मत करो, जाओ, बाहर खेलो।
रसोईघर, पूजाघर में उसकी उपस्थिति व्यवधान सी जान पड़ती है, पिताजी अपने कमरे में टी.वी. (T.V.) अखबार में लगे रहते हैं, उनका अपना माहौल है,दादा दादी, चाचा चाची का अलग कमरा है, बरामदे पर बड़े भाई का अधिकार है। शिशु जाए तो कहाँ जाए ? अत: छोटे निरीह के लिए कोई छोटी सी निश्चित जगह हो, जहाँ वह अपने तरीके से रह सके, अपने खिलौनों के साथ जी सके, अपने खजाने को सहेजकर रख सके, समयानुसार अपनी पसंद की चीज स्वेच्छा से निकलकर खा सके, आत्मनिर्भर बन सके।
एक वो समय था, जब भरापूरा परिवार था, घरों में अपेक्षित कमरे नहीं थे। घर में बड़ा कमरा दादा दादी का था, जिसमें सब बेरोकटोक आते जाते थे, उसमें एक सीलिंग पंखा था, सब चैन की नींद सोते थे, खुश थे। एक रेडियो था, रात्रि में समाचार समाप्त होते ही सब सो जाते थे। एक न एक रिश्तेदार अक्सर रहता था।
वक्त ने करवट बदली। आज घरों में कमरे ज्यादा हैं. सदस्य कम है। घर बड़ा हैं, परिवार छोटे हैं। सभी कमरों में टीवी, कूलर, वातानुकूलित (AC) लगे हैं। बड़ी तसल्ली से बालकनी, बनवाई झूला लगवाया, सोचा था, पत्नी के साथ फुरसत के लम्हों में तसल्ली से बैठेंगे, धूप तापगा,अखबार पढ़ेंगे, चाय की चुस्कियों का आनंद लेंगे लेकिन ऐसे दिन नहीं आते। अतिथि कक्ष अवश्य है,लेकिन अब कोई नहीं आता। आज सिमटते रिश्तों के दौर में हम किसी के घर में ठहरने की बजाय हाल में रुकना पसंद करते हैं ताकि किसी की स्वतंत्रता बाधित न हो । कमरों में ताले लगे हैं,धूल जम रही है ,बढती उम्र के साथ धूल झाड़ना भी काम का बोझ सा जान पड़ता है।
'तम्हारे महल चौबारे, यह जायेंगे सारे,
अकड़ किस बात की प्यारे' (शैलेन्द्र),
यह किस्सा पुराना जरूर है लेकिन ज्ञान चक्षु खुलते बहुत देर हो जाती है।
नोट :- बच्चो से सम्बन्धित जो भी प्रश्न हो आपके मन में बेहिजक कमेंट बॉक्स में कमेंट करके या ईमेल के माधयम से आप पूछ सकते है l
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