दोस्तों कुछ स्वाभाविक गुड़ दोष होते है बच्चो में जिसे हम बीमारी या अच्छा संकेत नहीं मानते जैसे :-
1. बच्चो की फुर्की बजाना (सिटी की आवाज़ ) निकलना l
2. बच्चो की हर बात पर 'ना' कहना l
3. बच्चो का छोटी-छोटी बातों में बिफरना, रूठना, जिद करना l
4. परिवार में दूसरे शिशु का आगमन होना l
5. अपने बच्चो की तुलना अन्य बच्चों से करना l
अपने बच्चों के मस्तिष्क/मनः स्तिथि को समझे :
शिशु की 6 माह से 2 वर्ष की उम्र में मुँह से रै फर्स्ट की (फुर्की बजाना ) आवाज निकालना किसी बीमारी का लक्षण नहीं है और न ही किसी बीमारी का पूर्वानुमान है। इसे रोकने के लिए उसके मुँह पर न मारें बल्कि उसके साथ बातें करें जिससे उसका ध्यान इस प्रक्रिया से हट जाए अन्यथा वह समझता है कि कुछ अच्छा काम कर रहा है, और बार बार दोहराता है।
बालक का 2 से 2.5 वर्ष की आयु में हर बात को 'ना'। कहना, उसका सामान्य स्वभाव है। उसका उद्देश्य किसी के व्यक्तित्व की अवमानना नहीं होता है, एक बार तो 'ना' कहता है लेकिन प्यार से समझाने पर अगले ही पल सबकी हर आज्ञा का पालन करता है।
और सबका दुलारा बन जाता है।
और सबका दुलारा बन जाता है।
बालक के कोष में निराशा शब्द नहीं होता, वह निरंतर प्रयासरत रहता है, चलने की कोशिश में
वह गिरता है फिर उठता है, चलता है, उसकी सीखने के प्रति लगन, तत्परता, उत्साह, भोलापन और समर्पण का भाव हम सबके लिए अनुकरणीय है। जहाँ पर हमको कछ नहीं दिखाई देता, बालक को चमत्कार दिखाई देता है। उसकी बाल क्रीड़ा का यह स्वच्छंद, नटखट स्वभाव हर जगह कुछ न कुछ। खेलने का इंतजाम कर लेता है, वह अपनी धुन में, मस्ती में रहता है। वह तितलियों के पीछे भागता है, चिड़ियों जैसा उड़ता है, पतिंगों को देखकर उड़ने लगता है, मेंढक को देखकर उचकता है, गाय, कुत्ते, बंदर के साथ उनके जैसा ही व्यवहार करता है, उसकी पस्थिति, चुलबुलापन, निराला अदाज, सहज कार्यकलापों की श्रृंखला और निरंतरता समूचे परिवेश को जीवत और खुशनुमा बनाती है।
हम निष्कर्ष पर नजर रखकर मंजिल तक अवश्य पहुंचते है परंतु रास्ते के सुखद एहसास से
वंचित रह जाते हैं। इसके विपरीत बालक लक्ष्य से अनभिज्ञ, सासारिकता से बेखबर, अपनी अनुभूतियों में निरंतर प्रयासरत रहते हैं, खोए रहते हैं। अपनी प्रबल इच्छा शक्ति के बल पर असाधारण रूप से क्रियाशील और तल्लीन रहते हैं, पूरी एकाग्रता के साथ अपने नन्हे नन्हे हाथों से पूरी गभीरता और लगन के साथ रेत के ढेर और घरोंदे बनाते, चित्रकारी करते, बगीचे में मिट्टी से खेलते. फल पत्ती बटोरते समय उनका धूप से लाल होता धूलधूसरित सलोना चेहरा और उस पर छलछलाती पसीने की बूढ़े सबके दिल को खुश करती है। उसकी बाल्यावस्था के हर पल का आनंद लें।
बालक जीवन अत्यंत सरल, मासम और पारदी है और हम अपनी उधेड़बुन और अंदरूनी संघर्ष से अपने जीवन को जटिल बनाते हैं। अत: बालक हमारे जीवन सुख की प्रफुल्ल और प्रसन्न खिली हुई कली है, उसका अवलोकन करें, मनन करें, अनुसरण करे, उसे छोटा, नासमझ समझना निश्चय ही बड़ी भूल है।
बाल्यावस्था में नकल करना उनकी सहज प्रवृत्ति है, बड़ों के कार्य पुस्तक अखबार पढ़ना, फोन
पर बात करना, कपड़े धोना, सुखाना, झाडू लगाना, रोटी बनाना करके वे गौरवान्वित होते हैं और उनके इस बाल विनोद से हम भी भावविभोर हो जाते हैं। हमें खश होता देख वे इन प्रक्रियाओं को बार बार दोहराते हैं।
पर बात करना, कपड़े धोना, सुखाना, झाडू लगाना, रोटी बनाना करके वे गौरवान्वित होते हैं और उनके इस बाल विनोद से हम भी भावविभोर हो जाते हैं। हमें खश होता देख वे इन प्रक्रियाओं को बार बार दोहराते हैं।
इस क्रम में बिटिया के अपनी माँ की तरह आइने के सामने खड़े होकर कंघी करने, पाउडर, लिपिस्टिक लगाकर सजने संवरने को अन्यथा न लें कि वह कुछ नुकसान कर रही है, काम बढ़ा रही है, बल्कि उसके लिए भी एक छोटा सा श्रृंगार डिब्बा रखें जिससे वह भी कभी-कभी अपने अनुसार सज-धज सके, तैयार हो सके, वह भी हमारी लाड़ली है, उसका भी हक है। इस आयु में उसका छोटी-छोटी बातों में बिफरना, रूठना, जिद करना फिर हमारा उसको मनाना एक दिव्य एहसास है, यह उसकी सामान्य जीवन शैली है।
जब परिवार में दूसरे शिशु का आगमन होता है, स्वाभाविक रूप से माँ और परिवार का ध्यान
नवजात पर केंद्रित हो जाता है, तब बड़ा बालक स्वय को उपेक्षित सा महसूस करता है।
नवजात पर केंद्रित हो जाता है, तब बड़ा बालक स्वय को उपेक्षित सा महसूस करता है।
एक राजा के सामाज्य में दूसरे राजा का पदार्पण कभी कभी ईर्ष्या की वजह बन जाता है, बड़ा मौका पाकर नवजात को मार देता है। यह भावना लड़कियों की तुलना में लड़कों में अधिक रहती है। इसके लिए उसे नवजात की परवरिश में शामिल करें, बड़े बनने की जिम्मेदारी का एहसास कराएँ ताकि वह समझे कि यह उसका जीवंत साथी है, उसकी देखभाल भी उसी तरह आवश्यक है जिस भावना से वह अपने ।
अपने बच्चो की तुलना अन्य बच्चों से करना :
जिस प्रकार बीज में वृक्ष बनने की अनंत संभावनाएँ हैं, उसी प्रकार नवजात शिशु के सफलतम, प्रगतिशील, संवेदनशील, संस्कार संपन्न और दृढनिश्चययुक्त संभ्रांत नागरिक बनने की अंतहीन संपूर्ण क्षमता है। इस कर्त्तव्य को निभाने के लिए प्रकृति ने हमें माता पिता बनाकर इस श्रेष्ठतम कृति को संवारने और उसमें रंग भरने का अधिकार दिया है। अतः हमें उसकी क्षमताओं और नैसर्गिक प्रतिभा के अनुरूप ढालने का प्रयास करना है। इस समय इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि उसकी तुलना अन्य बच्चों से न करें, ऐसा करके शायद हम अपने बच्चे का अपमान करते हैं।
कोई खिलौना टूट जाने पर सहज ही पाया जा सकता है
परन्तु यदि बालक भावनात्मक रूप से विभक्त हो गया तो
फिर उसे समाज की मुख्य धारा में लाना
असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल जरूर हो जाता है। अतः
स्नेह, उत्साह, उमंग, पुरस्कार, अनुशासन, आलोचना आर डॉट के संतुलन से इस नन्हे फरिश्ते को
धनात्मक दिशा में पूर्ण मूर्तिस्वरूप
में विकसित करने का संपूर्ण दायित्व हमें प्राप्त है जिसे गंभीरता से
पूरा करना अति आवश्यक है।
वैसे तो अधिकांश बच्चे आगंतुक कक्ष में
खेलते, मस्ती करते रहते हैं और हमारे कक्ष में
हमको देखते ही अक्सर जोर जोर से रोने लगते हैं लेकिन
बीच बीच में 5-6 माह के शिशु की नादान, निश्च्छल, मधुर, मनमोहक भोली मुस्कान हमें तरोताजा और प्रफुल्लित कर देती है, नवीन ऊर्जा का संचार होता है, ऐसा
लगता है कि बस अपनी जीवन यात्रा के
कार्यपथ पर निरंतर चलते रहें, चलते रहें।
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