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बच्चो में लक्षण अंगूठा चूसना ,नींद में पेशाब,एलर्जी व श्वास रोग



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अंगूठा चूसना ,नींद में पेशाब,एलर्जी व श्वास रोग 

दोस्तों आज हम बच्चो के कुछ सामान्य लक्षण के बारे में पढ़ते है ,समझते है और उसे रोकने के सुझाव व उपचार  :-

1. बच्चो का अंगूठा चूसना 

2. बच्चो का पेशाब में नियंत्रण न होना 

3. एलर्जी एवं स्वास रोग सम्बन्धी 

  •  बच्चो का अगूठा चूसना :


मानव मनोवैज्ञानिक विकास का पहला चरण मुख अवस्था है, जिसमें शिशु हर चीज उठाकर
मुँह में डालता है, इसी के तहत अंगूठा चूसने की आदत हो जाती है।
इसके सामान्य कारण भूख,असुरक्षा और अकेलापन है। अपने सामाजिक परिवेश में माँ के सानिध्य में शिशु भूखा नहीं रह पाता, समस्त परिवारजनों के आसपास रहने से असुरक्षा भी नहीं होती लेकिन जैसे ही अकेलापन हावी होता है,अगूठा चूसने लगता है। एक वर्ष की आयु से पूर्व उससे नजरें मिलाकर लगातार बातें करने से, घूमते हुए झूमरदार खिलौनों के माध्यम से इस आदत को आसानी से अंगूठा चूसना छुडाया जा सकता है  

एक वर्ष के बाद इस छुड़ाना कठिन हो जाता है। दिन के वक्त वह हमारा सब कहना मानता है, लेकिन टीवी पर अपने काटून धारावाहिक देखते समय, सोते समय अंगूठा चूसे बिना नहीं रह पाता है, इसे अनुशासन का मुद्दा न बनाएँ। इसे रोकने के लिए अंगूठे पर मिर्ची, मेथी अथवा कड़वी दवाइयाँ लगाना निश्चय ही भूल है,क्योंकि आज हम इतने बड़े होकर अपनी गंदी आदतें तो नहीं सुधार सके, बेचारे बालक से अपेक्षा करना नाइंसाफी है।

छह वर्ष की आयु के बाद उसे उसके बड़े होने का एहसास कराकर इसे छुड़ाया जा सकता
है, कि तुम अब बड़े हो गए हो, यह तो छोटों का काम है जो नहीं समझते, देखो, तुम्हारे मित्र, शिक्षिकाएँ कोई अंगूठा नहीं चूसता है।

  • नींद में बिस्तर में पेशाब होना :


छोटा नादान शिशु यह नहीं समझता कि शौच अन्यत्र किया जाता है। जब वह बड़ा होता है,
सबको शौचालय जाते हुए देखता है, समझने लगता है कि कहीं भी करना ठीक नहीं है, तब वह भी शौचालय जाने लगता है। उसके इस कार्य की सराहना करें और यदि नहीं भी जाता तो डराने धमकाने का सहारा न लें क्योंकि इससे समस्या घटने की बजाय बढ़ने का अंदेशा रहता है।
यह कहावत दहशत में पेशाब हो गई' यथार्थ है, कोई अतिश्योक्ति नहीं है। सामान्यतया बच्चा ढाई वर्ष की आयु तक दिन में हर बार शौचालय जाने लगता है और 3 वर्ष की उम्र तक रात्रि में भी उठकर शौचालय जाने लगता है।

इसके बाद भी कभी कभी इस प्रक्रिया में बच्चे का नियंत्रण नहीं रहता और नींद में ही बिस्तर में पेशाब हो जाती है। यह बीमारी नहीं है, अपितु पेशाब नियंत्रण संचार व्यवस्था की परिपक्वता में देरी की वजह से होती है।

शौच क्रियाओं में नियंत्रण, मुट्ठी में पकड़ी रेत के समान है जिसे यदि जोर से पकड़ने
का प्रयास किया जाए तो गिरने की पूरी संभावना रहती है। अत: इसमें बच्चों को डाँट फटकार की जरूरत नहीं है, बल्कि उसका मानसिक संबल बढ़ाएँ, उसे आपके सहयोग की आवश्यकता है क्योंकिवह जानबूझकर ऐसा नहीं करता है।

हमारे शरीर में पेशाब बनना चौबीस घंटे की प्रक्रिया है, यह बनकर पेशाब की थैली में जमा होती रहती है। जब यह मात्रा लगभग 700 मि.ली. तक होती है, तब आभास होता है कि शौचालय जाना चाहिए लेकिन यदि हम किन्हीं कारणोंवश नहीं जा सकते या नहीं जाना चाहते तब मस्तिष्क का संकेत आ जाता है और हम एक से 1.5 लीटर तक रोक सकते हैं। इन बच्चों में रात को सोते समय जब मस्तिष्क का नियंत्रण नहीं रहता तो जैसे ही 700 मि.ली. पेशाब जमा होती है, बिस्तर में निकल जाती है।

इसलिए अतिरिक्त पेय पदार्थ जैसे फलों का रस, शरबत, शीतल पेय, आइसक्रीम, सोते वक्त का एक गिलास दूध शाम 6 बजे से पहले ही समायोजित करें जिससे डन द्रवों से जितनी पेशाब बननी है, बन जाए। खाने के साथ पानी पर बंदिश न लगाएँ। सोने से पहले शिशु को शौचालय ले जाएँ जिससे मूत्र थैली खाली हो जाए तथा यदि माताएँ जल्दी उठ जाती हैं तो उठाकर पेशाब फिर करा दें।

अतः हम यह चाहते हैं कि पूरी रात में 700 मि.ली.से अधिक पेशाब न बनने पाए। यदि 6 वर्ष की आयु के बाद भी यह प्रक्रिया जारी रहती है, तब चिकित्सकीय परामर्श आवश्यक है।

  • एलर्जी और श्वास रोग :


आधुनिकीकरण और बढ़ते प्रदूषण के वर्तमान दौर में एलजी और श्वास रोगों की संख्या में
निरंतर वृद्धि हो रही है। बार बार श्वास फूलना, पराली चलना, सांस लेने में सीटी जैसी आवाज आना,दौड़ने, सीढ़ी चढ़ने पर बार बार खाँसी आना इसके लक्षण हैं, इन पर पंप और नेब्यूलाइजर से आसानी से नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। नेल्यूलाइजर में बिजली की आवश्यकता होती है, जबकि पंप कहीं भी उपयोग किया जा सकता है, बिजली की आवश्यकता नहीं होती। दोनों का प्रभाव और लाम बराबर है।

जिन बच्चों को यह तकलीफ होती है, उनके लिए इनका उपयोग जरूरी है। यह केवल भाति है कि इनसे फेफड़े कमजोर हो जाते हैं, इनसे निकलने वाली दवा की ठंडी भाप नुकसानदेय हो सकती है,इनके उपयोग के बाद अन्य दवाईयाँ असरकारक नहीं रहती, ये आखिरी सहारा है, इनकी आदत बन जाती है जो जीवन भर नहीं छूटती।

यह बीमारी अक्सर मौसम के परिवर्तन से होती है, इन बच्चों के लिए सितंबर, अक्टूबर और
फरवरी, मार्च के महिने कष्टदायक होते हैं। इस बीमारी का सामान्यतः किसी खाने की चीज से संबंध नहीं रहता है। धूल, धुंआ, परागकण, तेज सुगंध के सेंट, अगरबत्तियाँ, पेन्ट, वार्निश की गंध, दीवारों पर जमी सीलन और पपड़ी की फफूंद, खाने में मिलाए कृत्रिम रंग, गाड़ियों से उत्सर्जित काला धुंआ, कीटनाशक दवाइयों का धुंआ और छिड़काव, पालतू जानवरों के बाल, कालीन, फोटो, आलमारियों के पीछे की पुरानी धूल (गरदा) से यह परेशानी बढ़ सकती है, अतः इनसे बचें।

दीवाली पर हवा की दिशा के अनुसार खड़े होकर फटाके चलाएँ जिससे फटाकों का धुंआ श्वास द्वारा शरीर में प्रविष्ट न हो सके, यह भी परेशानी का कारण बन सकता है।
सामान्यतः बच्चों की सी खाँसी 3 से 5 दिन में बिना दवाईयों के अपने आप ठीक हो जाती है।
लेकिन इन बच्चों को सुबह छींक आती है, शाम तक खाँसी चलने लगती है, अगले दिन सुबह खाँसी और तेज हो जाती है और शाम तक पसली चलने लगती है, यानी मात्र 24 से 48 घण्टे में मामूली सी तेज पसली चलने का रूप ले लेती है, फिर बच्चा न भरपेट भोजन ग्रहण कर पाता है और न ही ठीक से सो पाता है। एक माह में बालक का तिल तिल करके जो वजन बढ़ता है, 3 दिन की बीमारी में घट जाता है।

अत: इन बच्चों को जैसे ही सर्दी शुरु हो, तुरंत नेब्युलाइज कर जिससे शीघ्र नियंत्रण हो और बीमारी बढ़ने न पाए। इन बच्चों की यह परेशानी 5 वर्ष की आयु होते तक अक्सर अपने आप समाप्त हो जाती है।

हम सभी दवाइयाँ मिलीग्राम मात्रा में गोली के रूप में लेते हैं, तब वह अवशोषित होकर खून में
माइक्रोग्राम में प्रवाहित होती है और शरीर के हर उस हिस्से में पहुँचती है, जहाँ भी रक्त का संचार होता है। इस समय दवा की आवश्यकता केवल फेफड़ों में है, बाकी शरीर में पहुँची दवा की कोई उपयोगिता नहीं है।

नेब्यूलाइजेशन माइक्रोग्राम में दवा जल्दी से फेफड़ों में पहुँचाने का आसान, असरकारक और
विश्वसनीय माध्यम है, जिससे पूरे शरीर को बाईपास करके दवा सीधे फेफड़ों तक पहुँच जाती है, इसका असर तत्काल देखा परखा जा सकता है कि नेब्यूलाइजर में दवा खत्म नहीं हो पाती खाँसी कम हो जाती है, बच्चा आराम से सो जाता है, हमको भी आराम मिल जाता है क्योंकि बच्चे के खाँसते ही सबकी नींद खुल जाती है। यह संभव नहीं है कि बच्चा खाँसता रहे और सब सोते रहें।

अतः गोली खाने से दवा की जितनी मात्रा मिलीग्राम में एक सप्ताह में शरीर में प्रविष्ट होती है उतनी दवा में हम महीने भर तक नेब्यूलाइज कर सकते हैं अर्थात कम दवा की मात्रा में जल्द ही बेहतर नियंत्रण और पूरा आराम, तो निश्चय ही हम इसे पसंद करेंगे।

हमारे जीवन में दवाइयों की उपयोगिता कष्ट, दर्द निवारण के लिए है जिससे जीवन सुखमय
बना रहे। शरीर में दवा पहुँचाने का माध्यम बीमारी अनुसार निर्धारित किया जाता है। जब कोई दर्द से बहुत बेचैन रहता है, नस में ड्रिप द्वारा दवा देते हैं जिससे जल्दी आराम हो सके। गोली के रूप में दवा लेने पर अवशोषित होकर रक्त द्वारा पहुँचेगी फिर असर करेगी, इसमें वक्त लगेगा, बच्चा दर्द से तड़पेगा।

तब यह सोचना तर्कविहीन है कि गोली खाएँगे, इन्जेक्शन नहीं लगवाएँगे। इसी प्रकार यह
सोचिए कि पाखाना न होने के कष्ट से पीड़ित को एनीमा नहीं लगाएँ, केवल गोली खिलाएँ,एनीमा देने से घंटे भर के अंदर पाखाना हो जाएगा और गोली का असर होने में 8-10 घंटे का वक्त लगेगा और उतनी देर वह दुखी रहेगा,तब गोली की जिद पर अड़े रहने का कोई औचित्य नहीं है।

इन उदाहरणों का आशय यह है कि इन बच्चों को जैसे ही परेशानी शुरु हो, तरंत नेब्युलाइजर
का उपयोग करें खाने की दवाईयों की जिद न करें। हम सब बतलाते, समझाते हैं लेकिन जैसे ही कोई मित्र,पडोसी,रिश्तेदार कहता है, अरे ये क्या कर रहे हो? इससे नुकसान होता है, भयवश नेब्युलाइजर का उपयोग बंद कर देते हैं। हमारे समझाने पर एक क्षण में पानी फिर जाता है और परेशान केवल बच्चा होता है। घर में नेब्यूलाइजर होते हुए भी इसका उपयोग न करना उसी प्रकार है कि घर में बढ़िया मोटरसाइकिल है और पदल घूम रहे हैं, फिर कहते हैं, थके जा रहे हैं, तो इस समस्या का क्या हल है?
ठाठ से गाड़ी चालू करें, घूमें। यानी निर्देशानुसार नेब्यूलाइज करें, जिससे बीमारी नियंत्रण में रहे । बालक शाला से अनुपस्थित न रहे और अपने साथियों के समान खेले, कूदे, दौड़े, ऊधम मचाए अर्थात् उसकी दिनचर्या बाधित न हो और कोई पाबंदी भी न रहे, यही हमारा उद्देश्य है।


बच्चो की आदतों से झुंझलाये नहीं ,उनके स्वाभाव को समझे परखें !




KIDS MASTI


दोस्तों कुछ स्वाभाविक गुड़ दोष होते है बच्चो में  जिसे हम बीमारी या अच्छा संकेत नहीं मानते जैसे :-
1.  बच्चो की फुर्की बजाना (सिटी की आवाज़ ) निकलना l 
2.  बच्चो की हर बात पर 'ना' कहना l 
3.  बच्चो का छोटी-छोटी बातों में बिफरना, रूठना, जिद करना l 
4.  परिवार में दूसरे शिशु का आगमन होना l 
5.  अपने बच्चो की तुलना अन्य बच्चों से करना l

अपने बच्चों के मस्तिष्क/मनः स्तिथि को समझे :

शिशु की 6 माह से 2 वर्ष की उम्र में मुँह से रै फर्स्ट की (फुर्की बजाना ) आवाज निकालना किसी बीमारी का लक्षण नहीं है और न ही किसी बीमारी का पूर्वानुमान है। इसे रोकने के लिए उसके मुँह पर न मारें बल्कि उसके साथ बातें करें जिससे उसका ध्यान इस प्रक्रिया से हट जाए अन्यथा वह समझता है कि कुछ अच्छा काम कर रहा हैऔर बार बार दोहराता है।

बालक का 2 से 2.5 वर्ष की आयु में हर बात को 'ना' कहनाउसका सामान्य स्वभाव है। उसका उद्देश्य किसी के व्यक्तित्व की अवमानना नहीं होता हैएक बार तो 'नाकहता है लेकिन प्यार से समझाने पर अगले ही पल सबकी हर आज्ञा का पालन करता है।
और सबका दुलारा बन जाता है।




बालक के कोष में निराशा शब्द नहीं होतावह निरंतर प्रयासरत रहता हैचलने की कोशिश में
वह गिरता है फिर उठता हैचलता हैउसकी सीखने के प्रति लगनतत्परताउत्साहभोलापन और समर्पण का भाव हम सबके लिए अनुकरणीय है। जहाँ पर हमको कछ नहीं दिखाई देताबालक को चमत्कार दिखाई देता है। उसकी बाल क्रीड़ा का यह स्वच्छंदनटखट स्वभाव हर जगह कुछ न कुछ। खेलने का इंतजाम कर लेता हैवह अपनी धुन मेंमस्ती में रहता है। वह तितलियों के पीछे भागता हैचिड़ियों जैसा उड़ता हैपतिंगों को देखकर उड़ने लगता हैमेंढक को देखकर उचकता हैगायकुत्तेबंदर के साथ उनके जैसा ही व्यवहार करता हैउसकी पस्थितिचुलबुलापननिराला अदाजसहज कार्यकलापों की श्रृंखला और निरंतरता समूचे परिवेश को जीवत और खुशनुमा बनाती है।
हम निष्कर्ष पर नजर रखकर मंजिल तक अवश्य पहुंचते है परंतु रास्ते के सुखद एहसास से
वंचित रह जाते हैं। इसके विपरीत बालक लक्ष्य से अनभिज्ञसासारिकता से बेखबरअपनी अनुभूतियों में निरंतर प्रयासरत रहते हैंखोए रहते हैं। अपनी प्रबल इच्छा शक्ति के बल पर असाधारण रूप से क्रियाशील और तल्लीन रहते हैंपूरी एकाग्रता के साथ अपने नन्हे नन्हे हाथों से पूरी गभीरता और लगन के साथ रेत के ढेर और घरोंदे बनातेचित्रकारी करतेबगीचे में मिट्टी से खेलते. फल पत्ती बटोरते समय उनका धूप से लाल होता धूलधूसरित सलोना चेहरा और उस पर छलछलाती पसीने की बूढ़े सबके दिल को खुश करती है। उसकी बाल्यावस्था के हर पल का आनंद लें।
 बालक जीवन अत्यंत सरलमासम और पारदी है और हम अपनी उधेड़बुन और अंदरूनी संघर्ष से अपने जीवन को जटिल बनाते हैं। अत: बालक हमारे जीवन सुख की प्रफुल्ल और प्रसन्न खिली हुई कली हैउसका अवलोकन करेंमनन करेंअनुसरण करेउसे छोटानासमझ समझना निश्चय ही बड़ी भूल है।
बाल्यावस्था में नकल करना उनकी सहज प्रवृत्ति हैबड़ों के कार्य पुस्तक अखबार पढ़नाफोन
पर बात करनाकपड़े धोनासुखानाझाडू लगानारोटी बनाना करके वे गौरवान्वित होते हैं और उनके इस बाल विनोद से हम भी भावविभोर हो जाते हैं। हमें खश होता देख वे इन प्रक्रियाओं को बार बार दोहराते हैं।
इस क्रम में बिटिया के अपनी माँ की तरह आइने के सामने खड़े होकर कंघी करनेपाउडरलिपिस्टिक लगाकर सजने संवरने को अन्यथा न लें कि वह कुछ नुकसान कर रही हैकाम बढ़ा रही हैबल्कि उसके लिए भी एक छोटा सा श्रृंगार डिब्बा रखें जिससे वह भी कभी-कभी अपने अनुसार सज-धज सकेतैयार हो सकेवह भी हमारी लाड़ली हैउसका भी हक है। इस आयु में उसका छोटी-छोटी बातों में बिफरनारूठनाजिद करना फिर हमारा उसको मनाना एक दिव्य एहसास हैयह उसकी सामान्य जीवन शैली है।

जब परिवार में दूसरे शिशु का आगमन होता हैस्वाभाविक रूप से माँ और परिवार का ध्यान
नवजात पर केंद्रित हो जाता है, तब बड़ा बालक स्वय को उपेक्षित सा महसूस करता है।
एक राजा के सामाज्य में दूसरे राजा का पदार्पण कभी कभी ईर्ष्या की वजह बन जाता हैबड़ा मौका पाकर नवजात को मार देता है। यह भावना लड़कियों की तुलना में लड़कों में अधिक रहती है। इसके लिए उसे नवजात की परवरिश में शामिल करेंबड़े बनने की जिम्मेदारी का एहसास कराएँ ताकि वह समझे कि यह उसका जीवंत साथी हैउसकी देखभाल भी उसी तरह आवश्यक है जिस भावना से वह अपने ।



अपने बच्चो की तुलना अन्य बच्चों से करना  :

जिस प्रकार बीज में वृक्ष बनने की अनंत संभावनाएँ हैं, उसी प्रकार नवजात शिशु के सफलतम, प्रगतिशील, संवेदनशील, संस्कार संपन्न और दृढनिश्चययुक्त संभ्रांत नागरिक बनने की अंतहीन संपूर्ण क्षमता है। इस कर्त्तव्य को निभाने के लिए प्रकृति ने हमें माता पिता बनाकर इस श्रेष्ठतम कृति को संवारने और उसमें रंग भरने का अधिकार दिया है। अतः हमें उसकी क्षमताओं और नैसर्गिक प्रतिभा के अनुरूप ढालने का प्रयास करना है। इस समय इस बात का अवश्य ध्यान रखें कि उसकी तुलना अन्य बच्चों से न करें, ऐसा करके शायद हम अपने बच्चे का अपमान करते हैं।

कोई खिलौना टूट जाने पर सहज ही पाया जा सकता है परन्तु यदि बालक भावनात्मक रूप से विभक्त हो गया तो फिर उसे समाज की मुख्य धारा में लाना असंभव तो नहीं लेकिन मुश्किल जरूर हो जाता है। अतः स्नेह, उत्साह, उमंग, पुरस्कार, अनुशासन, आलोचना आर डॉट के संतुलन से इस नन्हे फरिश्ते को धनात्मक दिशा में पूर्ण मूर्तिस्वरूप में विकसित करने का संपूर्ण दायित्व हमें प्राप्त है जिसे गंभीरता से पूरा करना अति आवश्यक है।

वैसे तो अधिकांश बच्चे आगंतुक कक्ष में खेलते, मस्ती करते रहते हैं और हमारे कक्ष में हमको देखते ही अक्सर जोर जोर से रोने लगते हैं लेकिन बीच बीच में 5-6 माह के शिशु की नादान, निश्च्छल, मधुर, मनमोहक भोली मुस्कान हमें तरोताजा और प्रफुल्लित कर देती है, नवीन ऊर्जा का संचार होता है, ऐसा लगता है कि बस अपनी जीवन यात्रा के कार्यपथ पर निरंतर चलते रहें, चलते रहें।


जीवन में पिता का महत्व,माँ की भूमिका,जीवन का तात्पर्य ,मनमोहक विज्ञापन परन्तु भ्रमित


Father & Mother Love with kids




दोस्तों माँ की महिमा के बारे में तो सब ने पढ़ा है पर थोड़ा पापा / पिता का दिल भी जान लीजिये :-

पिता की भूमिका :-

पिता सृष्टि के निर्माण की अभिव्यक्ति है। हमारे बचपन में पिताजी की भूमिका धौंस से चलने
वाले प्रेम के प्रशासन की थी, उनका प्यार कड़वा, खट्टा और खारा था, हम उनकी परछाई से भी डरते थे, हर आवश्यकता की पूर्ति के लिए माँ ही एक सहारा थी। हमने छोटी मोटी परेशानियों में माँ को जरूर पुकारा लेकिन बड़ी विपदा आने पर 'बाप रे ही उच्चारित हुआ। उनके इस कठोर व्यवहार की महत्ता हम तभी समझे, जब खुद पिता बने।

आज एकल परिवारों के दौर में, कार्यरत माता पिता के परिप्रेक्ष्य में पिता की भूमिका में परिवर्तन हुआ है। आज से लगभग 20 वर्ष पहले जब शिशु टेबिल पर पेशाब कर देता था तब माँ स्वयं जाकर अपने कपड़ा से पोंछ देती थी, 10 वर्ष बाद उसने पिता की ओर देखना शुरु किया तब पिता कपड़ा ले आता है, माँ पोंछ देती है

आज बच्चे के साथ पिता की भूमिका दोस्त की तरह है। बालक रोकर माँ की बजाय पापा
पुकारने लगा है लेकिन फिर भी पिता का संवेदनशील, अनंत प्यार अदृश्य और अप्रदर्शित है । वह अपनी इच्छाओं के हनन और परिवार की पूर्ति में लगा रहता है। पिता न तो अपने बच्चे की नौकरी लगने पर उसके आत्म संपन्न होने की खुशी का इजहार कर पाता है और न ही उसकी 'दूरदराज की नौकरी पर घर छोड़ने का गम जाहिर कर पाता है।'

 इस समय माँ जरूर आंसू गिराकर मन हल्का कर लेती है लेकिन सामाजिक दायरे में बंधा पिता मन ही मन रोता है, अंदर ही अंदर घुटता है, आंसू नहीं गिरा पाता। सदैव गंभीर, तटस्थ और शांत सा दिखने वाला पिता अपनी बिटिया की शादी के बाद उसकी विदाई की बेला में फूट फूट कर रोता है, उसे भी रोने का हक है, आखिर वह भी एक इंसान है।

 अब पिता जी के बाद माँ के बारे में नहीं पढ़ा तो माँ नाराज़ हो जाएगी इसलिए  कुछ शब्द माँ  नाम  :-

माँ की महिमा :-

बालक के लालन पालन में माँ और पिता की भूमिका एक गाड़ी के 2 पहियों के समान है।

माँ।
अस्तित्व का तत्त्व है। मनुष्य, गाय, बकरी, बिल्ली सभी में उच्चारण का उद्भव '' से होता है। माँ
हमारी प्रथम शिक्षिका है. वह मानव जीवन उत्थान की प्रेरणा स्रोत है। प्रकृति ने मातृत्व की यह सौगात नारी को ही प्रदान की है क्योंकि वह भी उसकी कोमलता, धीरज, त्याग और सहनशीलता से वाकिफ है।

माँ के आंचल की स्नेहमयी छाया और पल्ल पकड़कर चलते चलते बनती डगर में सभी समस्याओं का समाधान है, सारी उम्र माँ ताकत बनकर साथ चलती है। सभी महापुरुषों के जीवन पर उनकी माताओं के उज्जवल चरित्र की स्पष्ट छाप अंकित है। अनेक विचारको ने माँ की महिमा की व्याख्या की, लेकिन सभी भावनाएँ शब्दों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, कुछ अधूरा रह जाता है, कुछ छूट ही जाता है। माँ की महिमा असीमित है, अपरंपार है, अलौकिक है।
उसको नहीं देखा हमने कभी, पर उसकी जरूरत क्या होगी?

ऐ माँ तेरी सूरत से अलग,
भगवान की सूरत क्या होगी?”(इंदीवर)

माँ ममता का अथाह सागर है। वह कुछ क्षण को गुस्सा हो सकती है लेकिन ज्यादा समय के लिए। कभी नाराज नहीं होती, प्यार करना उसका उसूल है। उसका वात्सल्य असीमित है। यदि हमारी किस्मत लिखने की जिम्मेदारी माँ को मिलती तो यकीनन कोई गम, कष्ट हमारे हिस्से में न आता।
हर माँ को उसका बच्चा दुबला ही जान पड़ता है, शायद यह उसका प्राकृतिक स्वभाव है। माँ जब अपने मायके जाती है तब उसकी माँ भी उसे देखते ही अनायास कह उठती है कि अरे कितनी दुबली हो गई! तेरे लिए रसोई घर में किनारे वाले डिब्बे में घी मेवे के लड्डू रखे हैं, सुबह शाम खा लिया करो। बेटा चाहे 4 वर्ष का हो या 40 वर्ष का, हर माँ अपने बच्चे के खाने का ख्याल रखती है, फिक्र करती है और हमेशा उसे भूख से एक रोटी ज्यादा खिलाने की अभिलाषा रहती है।

शायद ही ऐसी कोई माँ होगी जो खाना लेकर बच्चों के पीछे न दौड़ी हो। वह बेचारी बार बार पूछती है, कुछ तो खा लो। उसने रात 10 बजे चूल्हा जलाकर गरम गरम रोटी खिलाई लेकिन उसके लिए तारीफ का एक शब्द न निकला, बल्कि नखरे दिखाए।
आज पत्नी का साम्राज्य है, सिर झुकाकर खाते हैं और तारीफ भी करते हैं।

विज्ञापन का मायाजाल :-

आजकल विज्ञापन के युग में सुबह से लेकर रात तक हमारे जीवन के हर पल, हर पहलू का
उत्पादक कंपनियों ने घेर रखा है, इनमें स्वास्थ्य और सौंदर्य के विज्ञापन सब मिथ्या हैं, भावनाओं का ब्लैकमेल हैं। इसे हम इस तरह समझ सकते हैं कि यदि 5 रुपये में सुंदरता हासिल की जा सकती है तो पाँच रुपये किसकी जेब में नहीं हैं? त्वचा का रंग उसमें उपस्थित रंग बनाने वाली कोशिकाओं (मेलेनोसाइटस) की संख्या पर निर्भर करता है, इस संख्या को घटाने बढाने के लिए कोई क्रीम, तेल, पाउडर उपलब्ध नहीं है। ऐसा तेल, शेपू लगाने से बाल लंबे, मजबूत होते हैं, शहर में धड़ल्ले से कितना तेल, शैंपू बिक रहा है लेकिन वैसे काले, घने, चमकदार, छलछलाते बाल किसी के नहीं हैं।
 नीग्रो समुदाय के काले, घने, घुघराले बाल कुदरती हैं। आखिर विज्ञापन का यही मतलब है कि जिस चीज की आपको जरूरत नहीं है, उसे खरीदें।

इनकी चकाचौंध परोक्ष रूप से मन को प्रभावित करती है, वही बात।बार बार दोहराई जाती है जिससे वह झूठ भी सच सा जान पड़ता है और हम खुद ही या पड़ोसियों, मित्रों, रिश्तेदारों के दबाव में उस ओर आकर्षित हो जाते हैं, मगमरीचिका में फँस जाते हैं, भ्रमित हो जाते हैं जबकि इस हकीकत से सभी वाकिफ हैं कि अकल और शकल बाजार में उपलब्ध नहीं है।

यह शरीर हमें कुदरत की नायाब सौगात है, इसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करें, सहर्ष स्वीकारें।
आप जिस भी तथाकथित सेहत बनाने वाले उत्पाद से प्रभावित हैं, उसके डिब्बे पर लिखी
संरचना का विश्लेषण करें कि उसमें कौन सी ऐसी विशेष चीज है जो घर में नहीं रखी है यानी जो पोषक तत्त्व हैं, वे सभी दाल, चावल, सब्जी, रोटी, दूध, मेवे और मौसम के ताजे फलों में मौजूद हैं, इनके सेवन से ही सभी स्वस्थ रह सकते हैं।

पौष्टिक भोजन का कोई विकल्प नहीं है। इस तथ्य का प्रमाण हमारे रिश्तेदार माँ, पिता, चाचा, मामा, मौसी हैं जो कि शायद आज की तारीख में भी शायद हमसे दमदार हैं, उन्होंने कभी इन डिब्बा बंद भोज्य पदार्थों का सेवन नहीं किया।

 आज से लगभग 50 वर्ष पहले जब चाचा, बुआ की शादी हुई, तब कोई होटलें नहीं थी,खाना बनाने वाले उपलब्ध नहीं थे, तब दादी और उनकी चार देवरानी जेठानी ने मिलकर 300 लोगों को खुशी से, दिल से, जी भर के खिलाया और गर्व का अनुभव किया। उस वक्त हमारे जैसे खाने वाले नहीं थे कि केवल 2-4 पुड़ी में पेट भर जाए, बाकायदा पंगत का इंतजार रहता था।

 आज हमारी सोच में आमूल परिवर्तन हुआ है जिसमें हम अपने एक जिगरी दोस्त को, जिसके साथ हमने अपने छात्र जीवन के कई यादगार वर्ष गुजारे हैं, उसे भी खाना घर के बजाय होटल में खिलाने की अभिलाषा रखते हैं।

जीवन का  तात्पर्य / महत्त्व :-

जिस दिन से चला हूँ, मंजिल पर नजर है,
रास्ते में बाधाएँ और तूफान मिले,
लेकिन कभी मील का पत्थर नहीं देखा।

अत्याधिक कार्य करने की धुन, अतिशय धनलिप्सा और अनियंत्रित उपभोग की आधुनिक
जीवन शैली ने हमारे लिए सुविधाओं का अंबार लगा दिया है। भौतिक सफलता निश्चित रूप से
आवश्यक है, लेकिन मंजिल पर पहुँचकर यदि अपने न दिखाई दें तो ऊँचाईयां शायद किसी काम की नहीं है। आजकल भागदौड़, उहापोह और रोबोटनुमा जीवन में 'न सुकून है, न जिंदगी, न अपनापन है
 जीवन की सार्थकता में बच्चों के साथ खेलना, प्राकृतिक सुषमा में रमना,परिवारजनों के साथ बतियाना, हँसना, खिलखिलाना, मित्रों के साथ पुलिया पर बैठकर गप्पें मारना, ठहाके लगाना अति आवश्यक है, यह अर्थसाध्य नहीं है ।
"आत्म संतोष, आंतरिक शांति और खुशी पैसे नहीं खरीदी जा सकती है, पैसा हर खुशी का पर्याय नहीं है। आपकी खुशियों की तिजोरी की चाबी आपके हाथ है, इसे बंद न करें, सदैव खुली रखें।"

गरीब,लावारिस व असहायों का मसीहा - मोक्ष संस्थापक श्री आशीष ठाकुर । (Part-01)

गरीब,लावारिस व असहाय लोगों का मसीहा - मोक्ष संस्थापक श्री आशीष ठाकुर । छू ले आसमां जमीन की तलाश ना कर , जी ले जिंदगी ख़ुशी की तलाश ना कर , ...